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कारिका २९,३०] देवागम
एकत्वके लोपमें सन्तानादिक नहीं बनते संतानः समुदायश्च साधर्म्यश्च निरंकुशः। प्रेत्य-भावश्च तत् सर्वं न स्यादेकत्व-निह्नवे ॥२६॥
'यदि-एकत्वका सर्वथा लोप किया जाय—सामान्य, सादृश्य, तादात्म्य अथवा सभी पर्यायोंमें रहनेवाले द्रव्यत्वको न माना जाय तो जो संतान, समुदाय और साधर्म्य तथा प्रेत्यभाव ( मरकर परलोकगमन ) निरंकुश है—निर्बाध रूपसे माना जाता है—वह सब नहीं बनता–अर्थात् क्रमभावी पर्यायोंमें जो उत्तरोत्तर परिणाम-प्रवाहरूप अन्वय है वह घटित नहीं होता, रूप-रसादि जैसे सहभावी धर्मोमें जो युगपत् उत्पाद-व्ययको लिये हुए एकत्र अवस्थानरूप समुदाय है वह भी नहीं बनता, सहधर्मियोंमें समान परिणामकी जो एकता है वह भी नहीं बनती और न मरकर परलोकमें जाना अथवा एक ही जीवका दूसरा भव या शरीर धारण करना ही बनता है। इसी तरह बालयुवा-वृद्धादि अवस्थाओंमें एक ही जीवका रहना नहीं बनता और ( चकारसे ) प्रत्यभिज्ञान-जैसे सादृश्य तथा एकत्वके जोडरूप ज्ञान भी नहीं बनते।'
ज्ञानको ज्ञेयसे सर्वथा भिन्न माननेमें दोष सदात्मना च भिन्नं चेज्ज्ञानं ज्ञेयाद् द्विधाऽप्यसत् । ज्ञानाऽभावे कथं ज्ञेयं बहिरन्तश्च ते द्विषाम् ॥३०॥
( इसी तरह ) ज्ञानको ( जो कि अपने चैतन्यरूपसे ज्ञेयप्रमेयसे पृथक् है ) यदि सत्स्वरूपसे भी ज्ञेयसे पृथक् माना जायअस्तित्वहीन स्वीकार किया जाय तो ज्ञान और ज्ञेय दोनोंका ही अभाव ठहरताहै-ज्ञानका अभाव तो उसके अस्तित्व-विहीन