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समन्तभद्र-भारती [परिच्छेद २ इसलिये उसके निषेधरूप जो अद्वैत शब्द है वह द्वैतके अस्तित्वकी मान्यता-बिना नहीं बनता। )
[ इस प्रकार अद्वैत एकान्तका पक्ष लेनेवाले ब्रह्माद्वैत, संवेदनाद्वैत और शब्दाद्वैत जैसे मत सदोष एवं बाधित ठहरते हैं।]
पृथक्त्व-एकान्तकी सदोषता पृथक्त्वैकान्त-पक्षेऽपि पृथक्त्वादपृथक्तु तौ। पृथक्त्वे न पृथक्त्वं स्यादनेकस्थो ह्यसौ गुणः ॥२८॥ '( अद्वैत एकान्तमें दोष देखकर ) यदि पृथक्पनका एकान्तपक्ष लिया जाय—यह माना जाय कि वस्तुतत्त्व एक दूसरेसे सर्वथा भिन्न है तो इसमें भी दोष आता है और यह प्रश्न पैदा होता है कि पृथक्त्व-गुणसे द्रव्य और गुण पृथक् हैं या अपृथक् ? यदि अपृथक् हैं तब तो पृथक्त्वका एकान्त ही न रहा-वह बाधित हो गया। और यदि पृथक् हैं तो पृथक्त्व नामका कोई गुण ही नहीं बनता ( जिसे वैशेषिकोंने गुणोंकी २४ संख्यामें अलगसे गिनाया है ) क्योंकि वह एक होते हुए भी अनेकोंमें स्थित माना गया है और इससे उसकी कोई पृथग्गति नहीं हैं—पृथक् रूपमें उसकी स्थिति न तो दृष्ट है और न स्वीकृत है अतः पृथक कहनेपर उसका अभाव ही कहना होगा।
[यह कारिका वैशेषिकों तथा नैयायिकोंके पृथक्त्वैकान्त पक्षको लक्ष्य करके कही गयी है, जो क्रमशः ६ तथा १६ पदार्थ मानते हैं और उन्हें सर्वथा एक दूसरेसे पृथक् बतलाते हैं। अगली कारिकामें क्षणिकैकान्तवादी बौद्धोंके पृथक्त्वैकान्तपक्षको सदोष बतलाया जाता है। ]