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कारिका ३३]
देवागम यहाँ-उन लोगोंके मतमें जो अद्वैत पृथक्त्वादि सप्रतिपक्ष धर्मोमें पारस्परिक अपेक्षाको न मानकर उन्हें स्वतंत्र धर्मोंके रूपमें स्वीकार करते हैं और इस तरह स्याद्वाद-न्यायके शत्रु बने हुए हैं-वह एकात्म्य नहीं बनता ( उसी प्रकार जिस प्रकार कि अस्तित्व-नास्तित्वका एकात्म्य नहीं बनता); क्योंकि उससे ( बन्ध्या-पुत्रकी तरह ) विरोध दोष आता है-अद्वैतैकांत पृथक्त्वैकांतका और पृथक्त्वैकांत अद्वैतैकांतका सर्वथा विरोधी होनेसे दोनोंमें एकात्मता घटित नहीं हो सकती।' . ( अद्वैत, पृथक्त्व और उभय तीनों एकान्तोंकी मान्यतामें दोष देखकर ) यदि अवाच्यता ( अवक्तव्यता ) एकान्तको माना जाय—यह कहा जाय कि वस्तुतत्त्व एकत्व या पृथक्त्वके रूपमें सर्वथा अवाच्य (अनिर्वचनीय या अवक्तव्य ) है तो वस्तुतत्त्व 'अवाच्य है' ऐसा कहना भी नहीं बनता—इस कहनेसे ही वह 'वाच्य' हो जाता है, अवाच्य नहीं रहता; क्योंकि सर्वथा 'अवाच्य' की मान्यतामें कोई वचन-व्यवहार घटित ही नहीं हो सकता।'
____ पृथक्त्व-एकत्व एकान्तोंका अवस्तुत्व-वस्तुत्व अनपेक्ष्ये पृथक्त्वैक्ये ह्यवस्तु द्वय-हेतुतः। तदेवैक्यं पृथक्त्वं च स्वभेदैः साधनं यथा ॥३३॥ 'एक दूसरेकी अपेक्षा न रखनेवाले पृथक्त्व और एकत्व चूँकि हेतुद्वयसे अवस्तु हैं—एकत्व-निरपेक्ष होनेसे पृथक्त्वका और पृथक्त्व-निरपेक्ष होनेसे एकत्वका कहीं कोई अस्तित्व नहीं बनताअतः एकत्व और पृथक्त्व सापेक्षरूपमें विरोधको प्राप्त न होनेसे उसी प्रकार वस्तुत्वको प्राप्त है जिस प्रकार कि साधन ( हेतु )साधन अपने पक्षधर्मत्व, सपक्षमें सत्त्व और विपक्षसे व्यावृत्तिरूप