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कारिका ८]
धर्म जिस प्रकार परस्परमें अविनाभाव-सम्बन्धको लिये हुए हैंएकके बिना दूसरेका सद्भाव नहीं बनता — उसी प्रकार एकान्त और अनेकान्तमें भी परस्पर अविनाभाव - सम्बन्ध है । ये सब सप्रतिपक्षधर्म एक ही वस्तुमें परस्पर अपेक्षाको लिए हुए होते हैं । उदाहरण के तौरपर अनामिका अंगुली छोटी भी है और बड़ी भी—कनिष्ठासे वह बड़ी है और मध्यमासे छोटी है । इस तरह अनामिका में छोटापन और बड़ापन दोनों धर्म सापेक्ष हैं, अथवा छोटी है और छोटी नहीं है ऐसे छोटेपनके अस्तित्व और नास्तित्वरूप दो अविनाभावी धर्म भी उसमें सापेक्षरूपसे पाये जाते हैं—अपेक्षाको छोड़ देनेपर दोनोंमें से कोई भी धर्म नहीं बनता । इसी प्रकार नदीके प्रत्येक तटमें इस पारपन और उस पारपनके दोनों धर्म होते हैं और वे सापेक्ष होनेसे ही अविरोधरूप रहते हैं ।
जो धर्म एक ही वस्तुमें परस्पर अपेक्षाको लिये हुए होते हैं वे अपने और दूसरेके उपकारी ( मित्र ) होते हैं और अपनी तथा दूसरेकी सत्ताको बनाये रखते हैं । और जो धर्म परस्पर अपेक्षाको लिये हुए नहीं होते वे अपने और दूसरेके अपकारी (शत्रु ) होते हैं - स्व-पर-प्रणाशक होते हैं, और इसलिये न अपनी सत्ताको कायम रख सकते हैं और न दूसरेकी । इसी से स्वामी समन्तभद्रने अपने स्वयंभू स्तोत्रमें भी -
"मिथोऽनपेक्षाः स्व-पर- प्रणाशिनः " " परस्परेक्षा स्व-परोपकारिणः "
इन वाक्योंके द्वारा इसी सिद्धान्तकी स्पष्ट घोषणा की है । आप निरपेक्ष नयोंको मिथ्या और सापेक्ष नयोंको सम्यक् बतलाते हैं। आपके विचारसे निरपेक्ष नयोंका विषय अर्थक्रियाकारी न होनेसे अवस्तु है और सापेक्ष नयोंका विषय अर्थकृत् ( प्रयोजन साधक )
देवागम
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