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समन्तभद्र-भारती [परिच्छेद १ पुष्ट बनाता है। उसे मालूम नहीं कि कुचलेमें मारनेका-जीवनको नष्ट कर देनेका-भी गुण है, और उसका प्रयोग सब रोगों तथा सब अवस्थाओंमें समानरूपसे नहीं किया जा सकता; न उसे मात्राकी ठीक खबर है, और न यही पता है कि वह वैद्य भी कुचलेके दूसरे मारकगुणसे परिचित था, और इसलिये जब वह उसे जीवनी शक्तिको बढ़ानेके काममें लाता था तब वह दूसरी दवाइयोंके साथमें उसका प्रयोग करके उसकी मारक शक्तिको दबा देता था अथवा उसे उन जीव-जन्तुओंके घातके काममें लेता था जो रोगीके शरीरमें जीवनी शक्तिको नष्ट कर रहे हों। और इसलिये वह मनुष्य अपनी उस एकान्त-धारणाके अनुसार अनेक रोगियोंको कुचला देता है तथा जल्दी अच्छा करनेकी धुनमें अधिक मात्रामें भी दे देता है। नतीजा यह होता है कि वे रोगी मर जाते हैं या अधिक कष्ट तथा वेदना उठाते हैं और वह मनुष्य कुचलेका ठीक प्रयोग न जानकर उसका मिथ्या प्रयोग करनेके कारण दण्ड पाता है, तथा कभी स्वयं कुचला खाकर अपनी प्राणहानि भी कर डालता है। इस तरह कुचलेके विषयमें एकान्त आग्रह रखनेवाला जिस प्रकार स्व-पर-वैरी होता है उसी प्रकार दूसरी वस्तुओंके विषयमें भी एकान्त हठ पकड़नेवालोंको स्व-पर-वैरी समझना चाहिये । ___ सच पूछिये तो जो अनेकान्तके द्वेषी हैं वे अपने एकान्तके भी द्वेषी हैं; क्योंकि अनेकान्तके बिना वे एकान्तको प्रतिष्ठित नहीं कर सकते—अनेकान्तके बिना एकान्तका अस्तित्व उसी तरह नहीं बन सकता जिस तरह कि सामान्यके बिना विशेषका या द्रव्यके बिना पर्यायका अस्तित्व नहीं बनता। सामान्य और विशेष, अस्तित्व और नास्तित्व तथा नित्यत्व और अनित्यत्व