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समन्तभद्र-भारती [ परिच्छेद १ विकल्प हैं उनकी विवक्षासे अथवा दृष्टिसे है-सर्वथारूपसे नहींनयदृष्टिको छोड़कर सर्वथारूपमें अथवा सर्वप्रकारसे एकरूपमें कोई भी वस्तुतत्त्व व्यवस्थित नहीं होता।'
सत्-असत्-मान्यताकी निर्दोष विधि सदेव सर्व को नेच्छेत्स्वरूपादि-चतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥१५॥
(हे वीर जिन ! ) ऐसा कौन है जो सबको-चेतनअचेतनको, द्रव्य-पर्यायादिको, भ्रान्त-अभ्रान्तको अथवा स्वयंके लिए इष्ट अनिष्टको–स्वरूपादिचतुष्टयकी दृष्टिसे—स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावकी अपेक्षासे—सत् रूप ही, और पररूपादिचतुष्टयकी दृष्टिसे—परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावकी अपेक्षासे-असत् रूप ही अंगीकार न करे ?- कोई भी लौकिकजन, परीक्षक, स्याद्वादी, सर्वथा एकान्तवादी अथवा सचेतन प्राणी ऐसा नहीं है, जो प्रतीतिका लोप करनेमें समर्थ न होनेके कारण इस बातको न मानता हो। यदि ( स्वयं प्रतीत करता हुआ भी कुनयके वश विपरीतबुद्धि अथवा दुराग्रहको प्राप्त हुआ ) कोई ऐसा नहीं मानता है तो वह ( अपने किसी भी इष्ट-तत्त्वमें ) अवस्थित अथवा व्यवस्थित नहीं होता हैउसकी कोई भी तत्त्वव्यवस्था नहीं बनती। क्योंकि स्वरूपके ग्रहण और पररूपके त्यागकी व्यवस्थासे ही वस्तुमें वस्तुत्वकी व्यवस्था सुघटित होती है, अन्यथा नहीं। स्वरूपकी तरह यदि पररूपसे भी किसीको सत् माना जाय तो चेतनादिके अचेतनत्वादिका प्रसंग आता है। और पररूपकी तरह यदि स्वरूपसे भी असत् माना जाय, तो सर्वथा शून्यताकी आपत्ति खड़ी होती है। अथवा जिस रूपसे सत्त्व है उसी रूपसे असत्त्वको और जिस