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कारिका ५]
देवागम एवं उनके कारणोंकी उत्तरोत्तर बहुत कमी पाई जाती है और इसलिए किसी पुरुष-विशेषमें विरोधी कारणोंको पाकर उनका पूर्णतः अभाव होना उसी प्रकार सम्भव है जिस प्रकार कि ( सुवर्णादिकमें ) मल-विरोधी कारणोंको पाकर बाह्य और अन्तरंग मलका पूर्णतः क्षय हो जाता है—अर्थात् जिस प्रकार किट्टकालिमादि मलसे बद्ध हुआ सुवर्ण अग्निप्रयोगादिरूप योग्य साधनोंको पाकर उस सारे बाहरी तथा भीतरी मलसे विहीन हुआ अपने शुद्ध सुवर्णरूपमें परिणत हो जाता है उसी प्रकार द्रव्य तथा भावरूप कर्ममलसे बद्ध हुआ भव्य जीव सम्यग्दर्शनादि योग्य साधनोंके बलपर उस कर्ममलको पूर्णरूपसे दूर करके अपने शुद्धात्मरूपमें परिणत हो जाता है। अतः किसी पुरुष-विशेषमें दोषों तथा उनके कारणोंकी पूर्णतः हानि होना असम्भव नहीं है। जिस पुरुषमें दोषों तथा आवरणोंकी यह निःशेष हानि होती है वही पुरुष आप्त अथवा निर्दोष सर्वज्ञ एवं लोकगुरु होता है।'
सर्वज्ञ-संस्थिति सूक्ष्मान्तरित-दूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञ-संस्थितिः ॥५॥
'( यदि यह कहा जाय कि दोषों तथा आवरणोंकी पूर्णतः हानि होनेपर भी कोई मनुष्य अतीत-अनागतकाल-सम्बन्धी सब पदार्थोंको, अतिदूरवर्ती सारे वर्तमान पदार्थोंको और सम्पूर्ण सूक्ष्मपदार्थोंको साक्षात् रूपसे नहीं जान सकता है तो वह ठीक नहीं है; क्योंकि, ) सूक्ष्मपदार्थ—स्वभावविप्रकर्षि परमाणु आदिक-, अन्तरित पदार्थ-कालसे अन्तरको लिये हुए कालविप्रकर्षि रामरावणादिक-, और दूरवर्ती पदार्थ-क्षेत्रसे अन्तरको लिये हुए क्षेत्रविप्रकर्षि मेरु-हिमवानादिक-, अनुमेय ( अनुमानका अथवा