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प्रस्तावना
षट्खण्डागममें यद्यपि स्याद्वादको स्वतंत्र चर्चा नहीं मिलती, फिर भी सिद्धान्त-प्रतिपादन 'स्यात्' (सिया) शब्दको लिए हुए अवश्य मिलता है । उदाहरणार्थ मनुष्योंको पर्याप्तक तथा अपर्याप्तक दोनों बतलाते हुए कहा गया है कि 'सिया पजत्ता, सिया अपजता' अर्थात् मनुष्य स्यात् पर्याप्तक हैं, स्यात् अपर्याप्तक हैं । इसी प्रकारसे आगमके कुछ दूसरे विषयोंका भी प्रतिपादन उपलब्ध होता है। आ० कुन्दकुन्दने उक्त दो ( विधि और निषेध ) वचन-प्रकारोंमें पाँच वचन-प्रकार और मिलाकर सात वचन-प्रकारोंसे वस्तु (द्रव्य ) निरूपणका स्पष्ट उल्लेख किया है । यथा
सिय अस्थि णस्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं । दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि ।
पंचास्तिकाय गा० १४ । 'स्यादस्ति द्रव्यं स्यान्नास्ति द्रव्यं स्यादुभयं स्यादवक्तव्यं स्यादस्त्यवक्तव्यं स्यान्नास्त्यवक्तव्यं स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्यं ।' इन सात भङ्गोंका यहाँ उल्लेख हुआ है और उनको लेकर आदेशवशात् ( नय. विवक्षानुसार ) द्रव्य-निरूपण करनेकी सूचना की है। कुन्दकुन्दने यह भी 'प्रतिपादन किया है कि यदि सद्रूप हो द्रव्य हो तो उसका विनाश नहीं हो सकता और यदि असद्रूप ही हो तो उसका उत्पाद सम्भव नहीं है और चूकि यह देखा जाता है कि जीव मनुष्यपर्यायसे नष्ट, देवपर्यायसे उत्पन्न और जोवसामान्यसे ध्रुव रहनेसे वह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप है।
(ख) श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलांछनम् ।। जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥
__ प्रमाणसं० १ । १। (ग) वन्दित्वा परमाहतां समुदयं गां सप्तभङ्गीविधि । स्याद्वादामृतगर्भिणी प्रतिहतैकान्तान्धकारोदयाम् ॥
अष्टश० मङ्गलश्लो० १। १. पंचास्तिकाय गा० १५, १७ ।