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समन्तभद्र-भारती (क) समन्तभद्रसे पूर्वका युग
जैन अनुश्रुतिके अनुसार जैनधर्मके प्रवर्तक क्रमशः कालके अन्तरालको लिए चौबीस तीर्थकर हुए है । इनमें प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव, वाईसवें अरिष्टनेमि, तेईसवें पार्श्वनाथ और चौबीसवें वर्द्धमान-महावीर तो ऐतिहासिक और लोकप्रसिद्ध भी हैं। इन तीर्थकरोंके द्वारा जो उपदेश दिया गया वह द्वादशाङ्ग कहा गया है। जैसे बुद्ध के उपदेशको त्रिपिटक कहा जाता है । वह द्वादशाङ्गश्रुत दो भागोंमें विभक्त है-१ अङ्गप्रविष्ट और २. अङ्गबाह्य । ये दो भेद प्रवक्ताविशेषके कारण हैं। जो श्रत तीर्थङ्करों तथा उनके प्रधान एवं साक्षात् शिष्योंद्वारा उक्त है वह अङ्गप्रविष्ट है। तथा जो इसके आधारसे उत्तरवर्ती प्रवक्ताओंद्वारा रचा गया वह अङ्गबाह्य है। अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य के भी क्रमशः बारह और चउदह भेद हैं । अङ्गप्रविष्टके बारह भेदोंमें एक दृष्टिवाद है जो बारहवां श्रुत है। इस बारहवें दृष्टिवादश्रुतमें विभिन्न वादियोंकी एकान्त दृष्टियों एवं मान्यताओंके निरूपण और समीक्षाके साथ उनका स्याद्वादन्यायसे समन्वय किया गया है । इस तथ्यको समन्तभद्रने अपनी कृतियों में 'स्याद्वादिनो नाथ तवैव युक्तम्' जैसे पदप्रयोगों द्वारा व्यक्त किया है और सभी तीर्थकरोंको स्याद्वादी (स्याद्वाद-प्रतिपादक ) कहा है । अकलङ्कदेवने भी उन्हें स्याद्वादका प्रवक्ता तथा उनके शासन-उपदेशको स्याद्वादके अमोघ लांछनसे चिन्हित बतलाया है।
१...एषां द्रष्टिशतानां त्रयाणां षष्ट्युत्तराणां प्ररूपणं निग्रहश्च क्रियते ।'-वीर
सेन, धवला पुस्तक १, पृ० १०८ । २. बन्धश्च मोक्षश्च तयोश्च हेतू बद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्तेः। स्यावादिनो नाथ ! तवैव युक्तं नैकान्तदृष्टस्त्वमतोऽसि शास्ता ॥
स्वयम्भूस्तो० श्लो० १४ । ३. ( क ) धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनमः । ऋषभादिमहावीरान्तेभ्यः स्वात्मोपलब्धये ॥
लघोय. का० १-१।