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समन्तभद्र-भारती
इस स्थापनाके समर्थनमें एक बात यह भी कही गई है कि विद्यानन्दको यदि उक्त मङ्गल-स्तोत्र उमास्वामी प्रणीत अभिप्रेत होता तो के 'प्रबुद्धाशेषतत्त्वार्थे...' आदि सोत्थनिका वाक्य द्वारा अनुपपत्तिस्थापन और उसका परिहार न कर उसीका यहाँ निर्देश करते । इस सम्बन्ध में हम इतना ही पूछना चाहते हैं कि स्थापनाकारने उक्त उत्थानिकावाक्य सहित पद्योंसे उक्त अर्थ कैसे निकाला ? क्योंकि विद्यानन्दने यहां केवल उस प्रसङ्गोपात्त अनुपपत्तिको प्रस्तुत करके उसका परिहार किया है जिसमें अनुपपत्तिकारने कहा है कि जब न कोई मोक्षमार्गका प्रवक्ताविशेष है और न कोई प्रतिपाद्यविशेष, तब प्रथम सत्रको रचना असंगत है ? इस अनुपपत्तिका परिहार करते हुए वे कहते हैं कि मुनीन्द्र (सूत्रकार ) ने 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि मङ्गल-स्तोत्र द्वारा सर्वज्ञ, वीतराग और मोक्षमार्गके नेताकी स्तुति करके सिद्ध कर दिया है कि मोक्षमार्गका प्रवक्ताविशेष है और प्रतिपाद्य विशेष भी। और इसलिए भावी श्रेयसे युक्त होने वाले ज्ञान-दर्शनस्वरूप आत्माको मोक्षमार्गको जाननेको अभिलाषा होनेपर सूत्रकारद्वारा प्रथम सत्रका रचा जाना संगत है। विद्यानन्दका वह पूरा स्थल इस प्रकार है :____ 'ननु च तत्वार्थशास्त्रस्यादिसूत्रं तावदनुपपन्नं प्रवक्तृविशेषस्याभावेऽपि प्रतिपाद्यविशेषस्य च कस्यचित्प्रतिपित्सायामेव प्रवृत्तवादित्यनुपपत्तिचोदनायामुत्तरमाह
प्रबुद्धाशेषतत्त्वार्थे साक्षात्प्रक्षीणकल्मषे । सिद्ध मुनीन्द्रसंस्तुत्ये मोक्षमार्गस्य नेतरि ॥ सत्यां तत्प्रतिपित्सायामुपयोगात्मकात्मनः ।
श्रेयसा योक्ष्यमाणस्य प्रवृत्तं सूत्रमादिमम् ।। तेनोपपन्नमेवेति तात्पर्यम् ।'
त० श्लो० पृ० ४ । विद्यानन्दने यहाँ 'प्रबुद्धाशेषतत्त्वार्थे', 'साक्षात्प्रक्षीणकल्मषे' और 'मोक्षमार्गस्य नेतरि' पदोंके द्वारा आप्तके जिन गुणोंका उल्लेख किया है