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समन्तभद्र-भारती
इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि तत्त्वार्थशास्त्र ( तत्त्वार्थ, तत्त्वार्थसूत्र, निःश्रेयसशास्त्र या मोक्षशास्त्र) के आरम्भमें जिन 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि तीन असाधारण विशेषणोंसे आप्तकी वन्दना शास्त्रकार बा० उमास्वामीने की है उन्हीं विशेषणोंकी मीमांसा ( सोपपत्ति विचारणा) स्वामी समन्तभद्रने आप्तमीमांसामें की है । तात्पर्य यह कि तत्त्वार्थसूत्रका 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि मङ्गलस्तोत्र आप्तमीमांसाको रचनाका मूलाधार है। विद्यानन्दके उक्त उख्खेखोंमें आये हुए 'शास्त्रावताररचितस्तुतिगोचराप्तमीमांसितं', 'शास्त्रकारः कृतं यत् स्तोत्रं "स्वामिमीमांसितं तत्', "शास्त्रादौ परमेष्ठिगुणस्तोत्रस्य मुनिपुङ्गवैविधीयमानस्य .."तदन्वयस्याक्षेप-समाधानलक्षणस्य श्रीमत्समन्तमद्रस्वामिभिर्देवागमाख्याप्तमीमांसायां प्रकाशनात्' जैसे स्पष्ट और अर्थगर्भ शब्द विशेष ध्यान देने योग्य है जो आप्तमीमांसाको तत्त्वार्थसूत्रके मङ्गलस्तोत्रका व्याख्यान असन्दिग्ध घोषित कर रहे हैं। विद्यानन्दनने अपने इस कथनको साधार और परम्परागत बतलानेके लिए उसे अकलङ्कदेवके अष्टशतीगत उस प्रतिपादनसे भी प्रमाणित किया है जिसमें अकलङ्कदेवने आप्तकी मोमांसा (परीक्षा) करनेके कारण समन्तभद्रपर किये जाने वाले अश्रद्धालुता और अगुणज्ञताके आक्षेपोंका उत्तर देते हुए कहा है कि ग्रन्थकारने देवागमादि मङ्गलपूर्वक की गई 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि स्तवके विषयभूत परमात्माके गुणविशेषोंकी परीक्षाको स्वीकार किया है, इससे उनमें श्रद्धा और गुणज्ञता दोनों बातें स्वयं आपन्न हो जाती हैं, क्योंकि उनमेंसे एकको भी कमी रहने पर परीक्षा सम्भव नहीं है। निश्चय ही ग्रन्थकारने शास्त्रन्याय ( तत्त्वार्थशास्त्रकी पद्धति-मङ्गलविधानपूर्वक शास्त्रकरण ) का अनुसरण करके हो आप्तमीमांसाकी रचनाका उपक्रम किया है और इससे सहज ही जाना जा सकता है कि ग्रन्थकारमें श्रद्धा और गुणज्ञता दोनों हैं। अकलङ्कका वह प्रतिपादन इस प्रकार हैं:
'देवागमेत्यादिमंगलपुरस्सरस्तवविषयपरमात्मगुणातिशयपरीक्षामुपक्षिपतैव स्वयं श्रद्धागुणज्ञतालक्षणं प्रयोजनमाक्षिप्तं लक्ष्यते । तदन्यतरापायेऽर्थ