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प्रस्तावना
७१-७२ द्वारा उन अवयव-अवयवी, गुण-गुणी आदिमें कथञ्चित् भेद, कथञ्चित् अभेद आदि सप्तमङ्गी-प्रक्रियाको योजना करके उनमें अनेकान्त सिद्ध किया है और यह दिखाया है कि किस तरह उनमें अभेद ( एकत्व ) है और किस तरह उनमें भेद ( नानात्व ) आदि है।
इस प्रकार इस परिच्छेदमें मेद और अभेदको लेकर विभिन्न वादियों द्वारा मान्य भेदैकान्त, अभेदैकान्त आदि एकान्तोंको आलोचना और . स्याद्वादनयसे उनमें अनेकान्तकी व्यवस्था की गई है। पञ्चम परिच्छेद :
इस परिच्छेदमें ७३-७५ तक तीन कारिकाओं द्वारा उन वादियोंको मीमांसा करते हुए जैन दृष्टि प्रस्तुत की गई है जो सर्वथा अपेक्षासे या सर्वथा अनपेक्षा आदिसे वस्तुस्वरूपकी सिद्धि मानते हैं। कारिका ७३ में कहा गया है कि यदि धर्म और धर्मीकी, विशेषण और विशेष्यकी, कार्य और कारणको तथा प्रमाण और प्रमेय आदिको सिद्धि सर्वथा अपेक्षासे मानी जाय तो उनकी कभी भी व्यवस्था नहीं हो सकती, क्योंकि वे उसी प्रकार अन्योन्याश्रित रहेंगे जिस प्रकार किसी नदीमें डूबते हुए दो तैराक एक दूसरेके आश्रय होते हैं और फलतः दोनों ही डूब जाते हैं । यदि उनको सिद्धि सर्वथा अनपेक्षासे ( स्वतः ) ही स्वीकार को जाय तो अमुक कार्यकारण हैं, अमुक धर्म-धर्मी हैं, अमुक विशेषण-विशेष्य हैं, अमुक प्रमाणप्रमेय हैं और अमुक सामान्य-विशेष हैं, इस प्रकारका व्यवहार नहीं बन सकेगा, क्योंकि ये सब व्यवहार परस्परको अपेक्षासे होते हैं । __ कारिका ७४ में सर्वथा उभयवादियोंके उभयकान्तमें विरोध और सर्वथा अनुभयवादियों के अनुभयैकान्तमें 'अनुभय' शब्द द्वारा भी कथन न हो सकनेका दोष दिया गया है।
७५ द्वारा स्याद्वादनयसे वस्तुस्वरूपकी सिद्धि प्रदर्शित की गई है। कहा गया है कि धर्ममिभाव, कार्यकारणभाव, विशेषणविशेष्यभाव और प्रमाणप्रमेयभावका व्यवहार तो अपेक्षासे सिद्ध होता है। परन्तु उनका स्वरूप स्वतः सिद्ध है। यथार्थमें कार्यमें कार्यता, कारणमें कारणता, प्रमाणमें प्रमाणता, प्रमेयमें प्रमेयता आदि स्वयं सिद्ध है वह परापेक्ष नहीं