________________ की पुनः प्राप्ति के लिये अवश्य दृढ़तर प्रयत्न करना चाहिए, ताकि समय पाकर वह कभी न कभी उक्त सम्यग् दर्शन आदि की उपार्जना कर अपने कल्याण करने के लिए समर्थ हो सके / __ जिन व्यक्तियों के क्षयोपशम भाव विशेष होते हैं, उनको स्वतः ही मनुष्य जन्म की प्राप्ति हो जाती है / किन्तु जिनके उक्त भाव नहीं होते, उनको सदुपदेश से उसकी प्राप्ति हो जाती है / सदुपदेश से हमारा तात्पर्य साधु पुरुषों के सदुपदेश से है, जिसकी प्राप्ति के लिये विशेष प्रयत्न और अभ्यास की आवश्यकता है / संसार में देखा गया है कि कुसंगति की ओर मनुष्य का झुकाव अधिक होता है, अनेक प्रकार के उपदेश भी कई एक व्यक्तियों को सन्मार्ग की ओर नहीं पलट सकते / यदि प्रारम्भ से ही मन की प्रवृत्तियां इस ओर लगाई जायं तो पूर्ण सफलता मिल सकती है / जिन व्यक्तियों की संगति से सद्गुण और ज्ञान आदि की प्राप्ति हो; उन्हीं की संगति सत्संगति कही जा सकती है। ऐसे व्यक्तियों की पहचान के लिए भी आज कल अत्यन्त बुद्धिमत्ता और चतुरता की आवश्यकता है / क्योंकि कई एक व्यक्ति मिथ्या आडम्बर रच कर भोले-भाले युवकों को अपने जाल में फँसा कर सन्मार्ग से ढकेल कर घोरतर कुसंगति के कुएँ में डुबो देते हैं। उक्त सुसंगति तीन तरह की वर्णन की गई है-द्रव्य-सुसंगति, क्षेत्र सुसंगति और काल-सुसंगति / द्रव्य-सुसंगति भी सचित्त, अचित्त और मिश्रित भेद से तीन ही प्रकार की होती है / सचित्त द्रव्य मनुष्य आदि जीव हैं, अचित्त भोग्य पदार्थ और मिश्रित वीणा आदि वादित्र हैं / सुसंगति के लिए उन्हीं मनुष्यों की संगति करनी चाहिए, जिनका आचरण शुद्ध हो और जो आस्तिक हों / उनकी संगति से जीवन में नवीनता और पवित्रता का संचार होता है / अपने ज्ञान में दिन प्रतिदिन वृद्धि होती चली जाती है और समय पाकर वह एक दिन अपने कल्याण के लिए स्वयं समर्थ हो जाता है / इस तरह शास्त्रों में मति-ज्ञान, श्रुत-ज्ञान, अवधि-ज्ञान, मनः पर्यव-ज्ञान और केवल-ज्ञान-पांच प्रकार का ज्ञान कथन किया गया है / इन पांचों में श्रुत-ज्ञान ही सबसे अधिक परोपकारी माना गया है / क्योंकि जब कोई निरन्तर गुरु-मुख से पवित्र आर्य-वाक्यों को सनेगा तो अवश्य ही उसकी आत्मा पर उनका प्रभाव पडेगा और इस प्रकार श्रुत-ज्ञान की प्राप्ति के अनन्तर शेष ज्ञानों की प्राप्ति बिना किसी अधिक परिश्रम के हो . सकेगी और फिर वह निरन्तर अपनी आत्मा को पवित्र बनाने में प्रयत्नशील बना रहेगा / - -