Book Title: Chalo Girnar Chale
Author(s): Hemvallabhvijay
Publisher: Girnar Mahatirth Vikas Samiti Junagadh

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Page 36
________________ मेरे हृदय में स्थापित हो !" यह चिंतन कर अंबिका एक वृक्ष के नीचे बैठी तब थोडी दूर पर उसने स्वच्छ शीतल जल से भरा हुआ एक पवित्र सरोवर देखा । इतने में ही उसकी दोनों तरफ कोयल के टहुकार के शब्दों के साथ पक्के हुए आम्र फलों की शाखा उसके हाथ में आयी । अंबिका ने तुरंत ही बालकों को सरोवर का पानी पिलाकर, तात्कालिक फल प्राप्त हुआ, ऐसा विचार करके वह जिनधर्म में ज्यादा दृढ मनोबलवाली बनकर थोडी देर विश्राम करने बैठी । इस तरफ अंबिका की सासु अंबिका का तिरस्कार करके मुनिदान के कारण बचे हुए भोजन को जूठा मानकर नया भोजन पकाने के लिए भोजन से भरे बर्तनों को देखती है । जैसे ही उसने बर्तन खोले, तब जिस तरह पारसमणि के स्पर्श से पाषाण भी सुवर्णमय बन जाता है, उस तरह सुपात्रदान के महाप्रभाव से वे बर्तन भी सुवर्णमय और भोजन आदि से संपूर्ण भरे हुए देखे । बस! उस समय अत्यन्त आश्चर्य के साथ विस्मय पायी हुई देवल सोचती है, "अरे ! निरपराधी, साक्षात् कल्पलता जैसी, जंगम लक्ष्मी जैसी बहु को निर्भागी ऐसी मेरे द्वारा घर से बाहर निकाला गया ! मुझे धिक्कार हो !" उस समय आकाशवाणी हुई कि "अरे ! अभागिन ! अंबिका के सुपात्रदान का अंश मात्र ही तुम्हें दिखाया है, परन्तु प्रचंड पुण्यशाली ऐसी अंबिका का वैभव तो अद्भुत है। वह तो सुपात्रदान के फल स्वरूप देवों के इन्द्र द्वारा पूजन के योग्य ऐसे उत्तम स्थान को प्राप्त करेगी।" ऐसी दिव्य आकाशवाणी सुनकर भयभीत देवल जल्दी सोमभट्ट के पास दौडी और पूरी घटना बताकर अंबिका को ढूंढकर वापिस लाने के लिए भेजती है। माता की बात सुनकर सोमभट्ट भी स्वयं की निंदा करता हुआ हृदय में अंबिका के प्रति अत्यन्त आदरभाव ग्रहण कर शीघ्रता से अंबिका को ढूंढने के लिए निकल पडा । सोमभट्ट नगर से बाहर निकलकर जंगल के मार्ग पर आगे बढ़ रहा था तब उसने दो बालकों के साथ अंबिका को देखा । हृदय में स्नेह के फँआरे उछलने लगे और विरह की व्यथा के साथ अत्यन्त व्याकुल बना सोमभट्ट जोर से बोलने लगा, "ओ अंबिका ! मेरी प्रिया ! जरा रूक जाओ ! मैं आ रहा हूँ !" कर्म संयोग से सोमभट्ट के शब्दों को अस्पष्ट सुनकर, उसे अपनी तरफ तेजी से आते देखकर अंबिका भयभीत हो गयी। "निश्चित यह मुझे मारने ही आ रहा है, इस जंगल में मेरे जैसी अबला का रक्षण कौन करेगा? यह निर्दय एवं दुष्ट तो मुझ पर क्या-क्या अत्याचार करेगा पता नहीं, अब मैं यहा से बचने के लिए क्या करूं? मैं तो निराधार बन गयी है। अब तो मरण ही मेरी शरण है।" इस तरह सोचती हुई नजदीक रहे हुए कुएं के किनारे पर आकर अंदर कूदने में तत्पर बनी अंबिका-बोलती है, श्री अरिहंत भगवंत की मुझे शरण हो ! श्री सिद्ध भगवंत की मुझे शरण हो !

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