Book Title: Chalo Girnar Chale
Author(s): Hemvallabhvijay
Publisher: Girnar Mahatirth Vikas Samiti Junagadh

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Page 89
________________ आचार्य बप्पभट्टसूरिजी ने कहा, "सर्वधर्म का मूल दया है । जिस धर्म को करने के लिए भयंकर हिंसा करनी पड़े, उस धर्म की क्या कीमत ? धर्म कार्य में हजारों मानवों का संहार अनुचित है। हम शास्त्रचर्चा द्वारा इस हारजीत का फैसला करेंगे।" श्री जिनेश्वर परमात्मा के प्रति अडग श्रद्धा रखनेवाले सामने पक्ष के आचार्य भगवंत ने सूरिजी के इस उपाय को स्वीकार किया। एक तरफ आमराजा और चुने हुए शिष्यगण के साथ आचार्य बप्पभट्टसूरिजी, दूसरी तरफ ग्यारहग्यारह महाराजा और अनेक आचार्य-पंडित आदि श्रावक वर्ग । शस्त्रयुद्ध के स्थान पर आज आमने-सामने शब्दयुद्ध हो रहा था। दोनों पक्षों ने चर्चा का आरंभ किया। दोनों पक्ष अपने-अपने मत सामने जाहिर कर रहे थे। अनेक शक्ती के स्वामी ऐसे सूरिश्वरजी की मदद में मा सरस्वती ने आकर सामनेवाले पक्ष को मुह तोड़ जवाब दिया । विरोधी पक्ष के विद्वानों के मुह तो देखने लायक थे । सूरिजी की महाप्रभावक वाणी से सब आश्चर्यचकित हुए। बहुत दिनों की धर्मचर्चा के अंत में मध्यस्थों द्वारा श्वेताम्बरों के विजयी होने की घोषणा की गई। विरोधीपक्ष के चेहरे निस्तेज हो गये। तब नम्रता मूति आचार्य बप्पभट्टसूरिजी ने खडे होकर कहा, "धर्म चर्चा में विजय हमारी होने के बावजूद एक और उपाय है कि, "दोनों पक्ष शासन देवी अंबिका देवी की आराधना करके प्रत्यक्ष उनके पास निर्णय मांगे । वह जो निर्णय करेंगी, वह सबको मान्य (स्वीकार) रहेगा।" पराजय से हताश हुए विरोधीपक्ष की जान में जान आई । विजय की आशा की एक लहर उनको दिखाई दी। दोनों पक्षों ने ऐसा निर्णय किया कि एक-दूसरे के पक्ष में एक-एक कन्या को भेजा जाये । और दोनों कन्यायें जो भी बोलेंगी, वह सबको स्वीकार करना होगा । प्रथम आचार्य बप्पभट्टसूरिजी ने एक प्रभावशाली लडकी को सामने पक्ष के आवास में भेजा । सामने पक्ष के लोगों ने बारह घंटे तक कन्या को मंत्राधिष्ठित करके, बोलने के लिए कहा, तब वह कन्या जैसे गंगी और बहरी हो गई हो. वैसे स्तब्ध खड़ी रही। फिर दिगंबरपक्षवालों ने आचार्य भगवंत के पास एक कन्या को भेजा और कहा कि, "यदि आप में शक्ति हो तो आप हमारी कन्या को बुलवाकर दिखाईये ।" आचार्य बप्पभट्टसूरिजी ने उस कन्या की तरफ स्नेहभरी नजर से आशीर्वाद दिया, तुरंत ही शासन देवी उसके मुंह से स्पष्ट रूप से बोलने लगी कि इक्कोवि नमुक्कारो, जिणवर वसहस्स वद्धमाणस्स संसार सागराओ, तारेइ, नरं व नारिं वा ॥१॥

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