Book Title: Chalo Girnar Chale
Author(s): Hemvallabhvijay
Publisher: Girnar Mahatirth Vikas Samiti Junagadh

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Page 60
________________ S HAN ....... तापस भी अपने संशय की बातें महात्मा को पूछने लगे। "हे भगवंत ! अडसठ तीर्थों की यात्रा से मेरे किए हुए सभी पापकर्मों की शुद्धि हुई या नहीं?" तब महात्मा कहते हैं कि "क्षेत्र और तपश्चर्या के बिना मात्र नदी, पर्वत, वन, गिरि, द्रहों में घूमने मात्र से कर्मों का क्षय नहीं होता । पाप की शुद्धि नहीं होती । मिथ्यात्वी तीर्थ में घूमने से मात्र काया का क्लेश होता है । कर्मक्षय के बदले गाढ कर्मों का बंध होता है। यदि आपको वास्तव में अशुभ कर्मों का क्षय ही करना हो तो चित्त की शुद्धि पूर्वक क्षमा-दया-सत्य-संतोषादि भावों से भावित ऐसे वीतराग परमात्मा का मन में ध्यान करके, रैवतगिरि महातीर्थ में तपश्चर्यादि आराधना करो, जिसके द्वारा तुम्हारे पापों का क्षय होगा।" वशिष्ट मुनि पूछते हैं, "हे भगवंत ! आप कृपालु जिस महातीर्थ की बात कर रहे हो. वह कहाँ आया है ?" ज्ञानी भगवंत कहते हैं, "रैवतगिरि महातीर्थ सोरठ देश में बालब्रह्मचारी श्री नेमिनाथ परमात्मा के पावन पदार्पण से पवित्र बना हुआ उत्तम तीर्थ है, पाँच इन्द्रियों का निग्रह करके श्री अरिष्टनेमि प्रभु का निर्मल भाव से एकाग्र चित्त से ध्यान करना उत्तम प्रकार का तप है। यदि आपको पापकर्म का क्षय करके निर्मलपुण्य की प्राप्ति करनी हो तो सद्गति को देनेवाले इस रैवतगिरि का आश्रय करो।" ज्ञानी भगवंत के वचनों को हृदय में धारण करके वशिष्ट तापस अत्यन्त हर्षित हृदय से. आनंद से विकसित नेत्रकमल के साथ अंतर में तेजस्वी श्री नेमिप्रभुजी का स्मरण करके समता रस में स्नान करते-करते रैवताचल पर पहुचे । रैवतगिरि में प्रदक्षिणा देकर उत्तरदिशा के मार्ग से गिरि आरोहण करते हैं। वहाँ मार्ग में छत्रशिला को दक्षिणादिशा की तरफ छोडकर अंबाकुंड के जल से स्नान करते हैं। स्नान करते-करते हृदय कमल में स्फटिक मणि जैसे निर्मल आर्हत तेज का ध्यान करते हुए वशिष्ट मुनि ध्यान और ध्येय को भूलकर अहँ में तन्मय बन जाते हैं। जैसे ही वे स्नान करके बाहर आते हैं, उस समय आकाशवाणी होती है कि, "हे तापसमुनि ! घोर हत्या के पाप से मुक्त बनकर अब तुम शुद्ध हुए हो । अंबाकुंड के महापवित्र जल से स्नान करने से तथा शुभध्यान के प्रभाव से तुम्हारे अशुभ कर्म क्षीण हुए हैं। इसलिए अब तुम श्री नेमिनाथ प्रभु की शरण ग्रहण करो।' वशिष्ट मुनि क्षण दो क्षण आश्चर्य चकित बने, बाद में स्वस्थ हुए, तब आकाशवाणी के दिव्य वचनों का स्मरण करते हुए हर्षाश्रु के साथ तुरंत ही श्री नेमिनाथ भगवान के चैत्य में जाकर नमस्कार करते हैं । सद्भाव पूर्वक स्तुति भक्ति आदि करके समतापूर्वक ध्यान और उग्रतप करके अवधिज्ञान को प्राप्त करते हैं। जिनध्यान में परायण बने वशिष्ट मुनि मृत्यु पाकर परमऋद्धिवान देव बने । उनके हत्यादोष के नाश के कारण अंबाकुंड अब वशिष्टकुंड के नाम से प्रसिद्ध है। उसके जल के संसर्ग से वायु का प्रकोप, व्याधि, पथरी, प्रमेह, कुष्ट, दाज-खुजली आदि रोग नाश होते हैं और दुस्तर ऐसी हत्या के पाप भी क्षय होते हैं।

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