Book Title: Chalo Girnar Chale
Author(s): Hemvallabhvijay
Publisher: Girnar Mahatirth Vikas Samiti Junagadh

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Page 59
________________ वशिष्टगुनि भरतक्षेत्र की भाग्यवान भूमि पर आठवें वासुदेव लक्ष्मण समुद्र तक पृथ्वी का पालन करते थे। नदी के किनारे वशिष्ठ नामक एक तापसपति अनेक प्रकार के मिथ्यातप करके अपनी काया को कष्ट देता था। मंत्र-तंत्रादि वेद-वेदांगों का जानकार होते हुए भी कुटिलता की कला में अत्यन्त कुशल होने के कारण वह मिथ्यात्वी जनों में बहुत माननीय था । तापसपति कंदमूल, फलादि का आहार और निर्मल जल से अपना निर्वाह करते हुए पर्णकुटीर में रहता था । एकबार पर्णकुटीर के आंगन में विस्तार से उगे हुए घास धान्यादि को चरने के लिए एक सगर्भा हरिणी वहाँ आयी। स्वभाव से क्रूर - घातकी ऐसे वशिष्ट तापस ने धीमे कदमों से हरिणी के पीछे जाकर, उसके शरीर पर लकड़ी से तीव्र प्रहार किया। हरिणी के पेट पर हुए दृढप्रहार के परिणाम से उसका पेट फट गया और अंदर से अपरिपक्व हरिणी का बच्चा बाहर गिरा । प्रहार की तीव्र वेदना से तडपती हरिणी ने तत्काल प्राण त्याग किए और साथ ही बच्चा भी मृत्यु को प्राप्त हुआ । - हरिणी और उसके अपक्व गर्भ की तडपन और मृत्यु के करुण दृश्य को देखकर क्रूर और घातकी हृदयवाले वशिष्ट तापस के अंतर की कठोर भूमि पर भी करुणा और वात्सल्य के अंकुर स्फुरित हुए.... एक तरफ उसके हृदय में पश्चात्ताप के झरने उछल रहे थे, तो दूसरी तरफ चारोओर मनुष्यों की भीड़ में वह अत्यन्त तिरस्कार पात्र बन गया था । बाल और स्त्री घातक के बिरुद से सभी उसके प्रति अरुचि द्वेषभाव की वर्षा बरसा रहे थे। स्वयं के किए हुए पापकर्मों के पश्चात्ताप से द्रवित हृदयवाले शिष्टमुनि अपने सर्व कर्मों का प्रक्षालन करने के शुभ आशय से पर्णकुटीर और उस गाँव का त्याग करके विविध तीर्थों की यात्रा के लिए चल पड़े । पापभीर, वशिष्ट मुनि किसी का भी संग किए बिना अकेले ही एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ घूम रहे थे। वशिष्ट मुनि नदी, द्रह, पर्वत, गाँव, समुद्रतीर और जंगलों में घूमते-घूमते, महिनों तक तीर्थ यात्रा करके अपनी अडसठ तीर्थ की यात्रा पूर्ण होते ही अपने आपको शुद्ध हुआ मानकर पुनः अपनी पुरानी पर्णकुटीर में पधारे। एकबार विहार द्वारा पृथ्वीतल को पावन करते हुए एक ज्ञानी जैन महात्मा वशिष्ट मुनि के आश्रम के समीप आत्मसाधना के लिए प्रतिमा ग्रहण करके काउस्सग्ग ध्यान में स्थिर थे । कुछ समय व्यतीत होने पर आसपास के गाँव के अनेक भक्तजन उन महात्मा को वंदन करने आने लगे और पूर्वभवों के वृत्तांत पूछकर अपने संशयरूपी अंधकार को दूर करने लगे। पूर्वभव का कथन करते हुए उन मुनिवर की बातें सुनकर वशिष्ट

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