Book Title: Chalo Girnar Chale
Author(s): Hemvallabhvijay
Publisher: Girnar Mahatirth Vikas Samiti Junagadh

View full book text
Previous | Next

Page 77
________________ से समग्र श्रोतावर्ग की तरफ अहंकार दृष्टि से नज़र करने लगा । आज मंत्रीश्वर के कानों में भी तीर्थरक्षा नामक एक मंत्र सतत गुंज रहा था । वे अधीर बन गए। उन्हें १-१ पल वर्ष के समान लग रही थी। चढावें में १-१ धडी सुवर्ण बढाकर आगे बढने में निरर्थक समय को व्यर्थ करने जैसा है, ऐसा अहसास हुआ । गिरनार गिरिवर में वनकेसरी की तरह पेथडमंत्री ने भी सिंह गर्जना करते हुए कहा "छप्पन धडी सोना' . पल दो पल समग्र सभा चौंक गयी। सभी की नज़र पूर्णश्रेष्ठि के मुख पर थी। वह भी मुग्ध बन गया । क्या करना? क्या नहीं करना? सब कुछ भूल गया । थोड़ी ही देर में स्वस्थ बनकर अपने पक्ष को बचाने के लिए विनंति करने लगा। लेकिन दिगंबर संघ ने स्पष्ट कह दिया कि “अब हमारी कोई शक्ति नहीं है, आपके पास संपत्ति हो तो आगे बढना ! हमारे सभी बैल. बैलगाडिया और मनुष्यों को अगर बेच दें, तो भी इतना सुवर्ण इकट्ठा नहीं हो सकेगा। और इस तरह सब कुछ खाली करके भी तीर्थ प्राप्त करने का कोई अर्थ नहीं है। हम इस तीर्थ को अपने घर तो नहीं ले जानेवाले हैं । तो फिर घर जलाकर तीरथ करने का व्यर्थ प्रयास किस काम का ? पूर्णश्रेष्ठि का चेहरा फीका पड गया । अत्यन्त दुःखित हृदय से मानो शरणागति स्वीकार कर रहे हो, वैसे अपने पराभव का स्वीकार करके दो हाथ जोडकर पेथडमंत्री को कहते हैं कि "मंत्रीश्वर पेथडशाह ! अब यह इन्द्रमाला आप ही ग्रहण करो।" गिरनार गिरिवर श्री नेमिनाथ भगवान के जयनाद से गूंज उठा । दशों दिशाओं में जयनाद के तरंगों की भरती आयी । इन्द्रमाला रूपी द्रव्यमाला के साथ तीर्थजय की विजयमाला मंत्रीश्वर के गले में पडी। समस्त वातावरण में वाजिंत्रो के मंगलनाद की सुवास फैल गयी । आज पेथडशाह हर्ष से फूले नहीं समा रहे थे। धर्मरक्षा-तीर्थरक्षा के अमूल्य लाभ को प्राप्त करके कृतकृत्य हो गये । आज उनके हृदय में आनंद नहीं समा रहा था। मंत्रीश्वर ने इन्द्रमाला ग्रहण करके गिरिवर से नीचे उतरते ही धर्मपरायण ऐसे शास्त्रवचनों का स्मरण किया कि, "धर्मकार्य के प्रारंभ में, व्याधि के विनाश में और वैभव की प्राप्ति में यदि विलंब किया जाये तो वह शुभकारक नहीं होता उसी तरह देवद्रव्य भरने में विलंब करना शुभकारक नहीं है।" आयाणं जो भंजइ, पडिवन्नधणं न देइ देवस्स । नस्संतं समुविक्खइ, सो विहु परिभमइ संसारे ॥ "देवद्रव्य की आय को जो तोडता है, स्वीकार किया हुआ देवद्रव्य नहीं देता है और यदि देवद्रव्य का नाश होता हो

Loading...

Page Navigation
1 ... 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124