Book Title: Chalo Girnar Chale
Author(s): Hemvallabhvijay
Publisher: Girnar Mahatirth Vikas Samiti Junagadh

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Page 40
________________ गोमेध यक्ष भरतक्षेत्र की भव्यभूमि पर सुग्राम नामक सुहावना गाँव था। जहाँ गोमेध आदि अनेक प्रकार के यज्ञकांड क्रिया करानेवाला एक ब्राह्मण रहता था । मुख्यत: गोमेध आदि यज्ञ कराने में निपुण होने के कारण सभी ब्राह्मणों में वह गोमेध ब्राह्मण के नाम से प्रख्यात था । मिथ्यात्व के घोर अंधेरे के कारण वह धर्म के नाम पर, यज्ञ आदि क्रियाओं द्वारा अनेक प्राणीओं की हत्या में निमित्त बनता था । जीवहिंसा के भयंकर पापकर्म के तात्कालिक फल स्वरूप उसकी पत्नी और पुत्रों की मृत्यु हो गयी । पुत्रपत्नी बिना निराधार बना ब्राह्मण अत्यंत उदास रहने लगा। आगे चलकर उसके शरीर में भयंकर कुष्ठरोग होने के कारण उसके प्रति जरा भी सहानुभूति बताये बगैर उसके स्वार्थी स्वजनों ने तिरस्कार करके उसे निकाल दिया। कुष्ठरोग की महापीडा से अत्यंत दुःखी अवस्था में वह जीवन व्यतीत कर रहा था। तभी अधूरे में पूरा, उस ब्राह्मण के शरीर के रोमरोम में असंख्य कीड़े पैदा होने के कारण वह प्रत्यक्षतः नरक की अत्यंत दुःखदायक पीडा भुगत रहा था । शरीर के एक-एक अंग में, बिलबिलाते कीडे और सतत निकलती रसी वगैरे अशुचि पदार्थों से उसके शरीर से तीव्र दुर्गन्ध फैलने लगी । दुर्गन्ध और अशुचि से व्याप्त उसके शरीर पर अनेक मक्खिया भिनभिनाने से वह अत्यंत वेदना का अनुभव कर रहा था । रोमरोम में अंगारो की जलन की वेदना सहन न होने से जल्दी से जल्दी मौत आ जाए ऐसी इच्छा के साथ भयंकर वेदनाओं को सहन करता हुआ, रास्ते में लोटता हुआ वह दुःख की चीख के साथ आक्रंद कर रहा था। अच्छे कार्य के (सत्कार्य) बीज कभी न कभी तो फलते ही हैं। वैसे ही उसके पूर्वजन्म के कुछ अच्छे कार्यों का प्रचंड उदय होनेवाला हो वैसे, उस समय एक मुनिवर उस रास्ते से गुजरते हैं । क्षमाश्रमण, दया के भंडार ऐसे महात्मा ने उसकी अवदशा देखकर सहानुभूति बताकर कहा कि, “हे भाग्यवान ! तूने कुगुरु के उपदेश के प्रभाव से धर्म की बुद्धि से अनेक जीवों की हिंसा करके जो कुकर्म किया है, उस पाप वृक्ष के ये तो अंकुर मात्र प्रकट हुए हैं। उस पापकर्म के फल तो तुझे अगले जन्म में प्राप्त होंगे । नरक आदि दुर्गति की परम्परा का यह प्रथम चरण हैं। अगर तू उस घोर भयंकर पीडा से थक गया है और अगले जन्मों में इस पीडा से दूर रहना चाहता है तो, अभी भी देर नहीं हुई हैं। तू जीवदया जिसके मूल में है ऐसे जीवदया पालक, करुणासागर, दया के भंडार श्री जिनेश्वर परमात्मा द्वारा स्थापित हुए जिनधर्म को स्वीकार कर । आज तक अनेक जीवों की हत्या करके, जीवों को पीडा दी है उनकी क्षमायाचना कर । तेरे किये हुए कुकर्म को नष्ट करने के लिए समर्थ, अनेक देवों

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