Book Title: Chalo Girnar Chale
Author(s): Hemvallabhvijay
Publisher: Girnar Mahatirth Vikas Samiti Junagadh

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Page 44
________________ साधु भगवंत की निंदा-घृणा करने के पाप के उदय से तुम वहाँ से मरकर नरक में उत्पन्न हुई। वहाँ से मुर्गी, चांडाली, गाँव की सूअरी आदि अनेक दुर्गति के दुष्ट भवों में लम्बे समय तक भ्रमण कर अंत में बहुत कर्मो के क्षय होने से तुमने महामूल्यवान ऐसे इस मानव भव को प्राप्त किया है। परन्तु उसी कृत्य के शेष रहे थोडे कर्मों के प्रबल उदय होने से इस भव में भी तुमने इस दुर्गंधीपन और दुर्भागीपन को प्राप्त किया है। "हे बाला ! इस जगत में सर्वोत्तम पुरुष, तीन लोक में पूजनीय ऐसे वीतराग परमात्मा सर्वश्रेष्ठ हैं, उनके वेशमात्र को भी धारण करनेवाले, निष्क्रिय ऐसे साधुभगवंत भी निंदनीय नहीं हैं, तो मिध्यात्व का ध्वंस करनेवाले पंचमहाव्रत के धारक और पालक, अरिहंत परमात्मा के शासन को प्रकाशित करनेवाले ऐसे सुसंयमी श्रमण भगवंतो की निंदा करना कितना उचित है ? अरे ! इन महापूजनीय महामुनियों की निंदा-आशातना और मस्ती तो अनंत संसार के भवभ्रमण को बढानेवाली है। जो निस्पृही, निर्ममत्वी, निष्परिग्रही और निष्कारण बंधु, जीवमात्र को पीडा न पहुँचे, इसके लिए सतत जागृत ऐसी निर्दोष चर्या पूर्वक संयम जीवन की आराधना करनेवाले निग्रंथ तो सर्वत्र पूजने योग्य हैं। निस्वार्थ भाव से सभी को दुर्गति में गिरने से बचानेवाले, "धर्मलाभ" शब्द के द्वारा अनेक जीवों की जीवन नैया के सच्चे नाविक, इन महामुनियों की निंदा कैसे की जाय ? हे दुर्गंधा ! इस तीर्थ के महान प्रभाव से आज तेरे अनेक जन्मों के अशुभ कर्मों का क्षय होने से तुम्हे सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई है। बोधि बीज वपन हुआ है। बस! अब इस तीर्थभक्ति रूपी जल से सतत सिंचन करने से तुम्हारे अनंत संसारभ्रमण का अंत होगा और तुम्हें मोक्ष फल की प्राप्ति होगी । केवली भगवंत के सुधारस का पान करके आनंदविभोर बनी धन्यता का अनुभव करती हुई दुर्गंधा का हृदय हर्ष से नाच उठा और वह मुनिवर के चरणकमल में नतमस्तक हो गयी । ३७

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