Book Title: Chalo Girnar Chale
Author(s): Hemvallabhvijay
Publisher: Girnar Mahatirth Vikas Samiti Junagadh

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Page 49
________________ है। उसमें भी रैवतगिरि की महिमा तो मैंने सुनी और साक्षात् देखी भी है। इस तीर्थ की सेवा करके जीवों को सुख-संपत्ति, चक्री और शक्रादि की रिद्धि-सिद्धि भी प्राप्त होती है और वे अल्पकाल में मुक्तिपद को प्राप्त करते हैं । इस तरह जांगल तापस के मुंह से रैवतगिरि महातीर्थ की अचिन्त्य महिमा सुनकर तापस मुनि बहुत ही आनंदित हुए। भीमसेन और परदेशी भी इस महिमा को सुनकर आश्चर्यचकित हुए और उन्होंने पहले रोहणाचल पर जाकर फिर रैवतगिरि की यात्रा करने का निश्चय किया। रास्ते में अनेक गाव नगर और जंगल से गुजरते हुए वे रोहणाचल के पास आ गए। विधिपूर्वक पर्वत के अधिष्ठायक देवों की पूजा-अर्चना करके भीमसेन खान में से रत्न निकालने की आज्ञा पाता है। पुरी रात जागरण करके मंगलकारी सुबह में रत्नखान में शस्त्रों से प्रहार करके महामूल्यवान ऐसे दो कीमती रत्न भीमसेन प्राप्त करता है। इन दो रत्नों में से एक राजकुल में समपित करके, दूसरा रत्न लेकर, जहाज में बैठकर दूसरी जगह जाने के लिए निकलते हैं। समुद्रयात्रा के दौरान पूनम के दिन, सोलह कला से खिले हुए पूर्णचंद्र के दर्शन करते हुए भीमसेन ने सोचा कि इस चंद्रमा का तेज ज्यादा होगा या इस रत्न का? दोनों की तुलना करने के लिए भीमसेन ने रत्न बाहर निकाला । लेकीन शायद अभी तक अशुभ कर्मों की परंपरा चालु ही थी। भवितव्यतावश उसके हाथों से वह रत्न समुद्र में गिर गया। कहते हैं ना कि, "भाग्य से ज्यादा किसी को नहीं मिलता और भाग्य में हो तो, कहीं जाता नहीं।" भाग्यहीन भीमसेन के मुंह से करुणाभरे स्वर निकले और कर्म के एक और झटके से वह बेहोश हो गया । थोड़े समय के बाद ठंडे पानी के छिटकाव से पुन: होश में आते ही भीमसेन जोरजोर से विलाप करने लगा । जहाज के सहप्रवासी भी उसका विलाप सुनकर इकट्ठे हुए । तब "मेरा रल समुद्र में गिर गया, मेरा रत्न समुद्र में गिर गया । मैं लूट गया, मैं लूट गया । ऐसे दीनता भरे वचन वह बोलने लगा । सहयात्रियों ने उसे आश्वासन द्वारा शांत करने का प्रयास किया । फिर भी भीमसेन शांत नहीं हुआ। तभी उसके मित्र परदेशी ने धैर्य धारण करने की सलाह दी। और शोकमुक्त होने के लिए कहा, "अगर हम जिंदा रहें, तो मैं तुम्हें दूसरे और रत्न दिला दुगा । तू खेद मत कर । अभी हम दरिद्रों के दुःख दूर करनेवाले, संकट को टालनेवाले महाप्रभावक ऐसे रैवताचल की तरफ जा रहे हैं। वहाँ तेरी इच्छापूर्ति हो जायेगी अथवा ये मेरे रत्न तू रख ले ।" ऐसे आश्वासन भरे शब्दों से भीमसेन को शांत किया । भीमसेन के कुछ धीरज धारण करने के बाद समुद्र मार्ग काटकर दोनों रैवतगिरि महातीर्थ की तरफ आगे बढ़े । हाथ धोकर पीछे पड़ा हो वैसे कर्मराज भी कोई भी हालत में पीछा छोड़ता नहीं । रैवतगिरि तरफ के मार्ग में आगे बढ़ते हुए दोनों को चोर लूट लेते हैं और वस्त्र-भोजन आदि सब कुछ लूट लेते हैं। सबकुछ लूट जाने से दोनों अनेक दुःखों को सहन करते ४२

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