Book Title: Bruhat Sangrahani
Author(s): Chandrasuri
Publisher: Umedchand Raichand Master

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Page 180
________________ करीने ( होइ ) के होय छे. जेम रत्नप्रभानी उत्कृष्टी एक सागरीपमनी स्थिति ते शर्करामभाए कनिष्ट एटले जयन्य स्थिति जाणवी. अने ( पढमाए) के० पहेली रत्नप्रभाने विष (दस बोस सहस्स) के० दश हजार वर्षनी जघन्य स्थिति जाणवी. ॥३०९॥ नवइ सम सहस्स लक्खा,पुवाणं कोडि अयर दप्त भागा ॥ इक्किकभोगबुढी, जा अयरं तेरसे पयरे ॥ ३१० ॥ ( इय जिट्ठ जहण्णा पुण,दस वास सहस्स लक्ख पयरगे।/ सेसेसु उवरिजिट्ठा, अहो कणिट्ठाओ पइं पुढवी ॥३१॥ अय-रत्नप्रभा पृथ्वीना पहेला प्रतरने विषे उत्कृष्टी स्थिति ( नवइ सम सहस्स ) के० नेवु हजार वर्षनी, वीजा प्रतरने विषे (लकावा ) के० नेवु लाख वर्षनी, बोजा प्रतरने विषे ( पुराणं काडी ) के० एक पूर्व कोडीनी, चोथा प्रतरने विवे (अयर दस भागा) के० एक सागरोपमना दशमा भागनी, त्यार पछी दरेक प्रतरे ( इक्विकभागवुड्डी ) के० एक एक भागनी वृद्धी करवी के (जा) के० ज्यां सुधीमां (तेरसे पयरे ) के० तेरमा प्रतरे (अयरं) के. एक सागरोपमनी उत्कृष्टी स्थिति थाय ॥ ३१० ॥ (इय जिह) के० ए उत्कृष्टी स्थिति कही, (पुण) के. वली (जहण्णा) के० जवन्य स्थिति ते (पयरदुगे ) के० पहेला बे प्रतरने विषे अनुक्रमे (दस वास सहस्स ) के० पहेला प्रतरे दश हजार वर्षनी अने बीजा प्रतरे ( लक्ख ) के० दश लाख वर्षनी जाणवी. ( सेसेसु) के० त्रीजाथी आरंभीने वाकीना प्रतरोने विधे ( उपरि जिहा ) के० अरना प्रतरोने विो जे उत्कृटी स्थिति होय ते (अहो कणिवाओ) के० नीचेना प्रतरोने विवे जयन्य स्थिति जाणवी. एम (पई पुढवी) के० दरेक पृथ्वीने विषे समजवु. ॥ ३११ ॥

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