Book Title: Bruhat Sangrahani
Author(s): Chandrasuri
Publisher: Umedchand Raichand Master
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२२१
ईशान देवलोक सुधीना देवता एकेंद्रि रत्नो होय. ॥ ३८८ ॥
ए उपरना तात्पर्य अर्थवाली त्रण गाथा कहे छे. मंडलिय मणुअरयणं, अह सत्तम तेउवाउवज्जेहिं ॥ वासुदेव मणुअरयणा, अगुत्तरविमाणवज्जेहिं ॥३८९॥२॥
अर्थ-( अह सत्तम तेउवाउबजेहिं ) के० नीचेनी सातमी नरकपृथ्वी तथा तेउकाय अने वाउकायना जीवाने वर्जी वाकीनी जीवो (मंडलियमणुअरयणं) के० मंडलिक राजा तथा पांच मनुष्यरत्नपणे उत्पन्न थाय छे. वली (अणुत्तरविमाणवज्जेहिं ) के० पांच अनुत्तर विमानना जीबो वर्जीने बीजा जीवो वासुदेव ( मणुअरयणा ) के० वासुदेव अने पांच मनुष्यरत्नपणे उत्पन्न थाय छे. ॥ ३८९ ॥ तिरिस्थि मणु असंखाउ-एहिं कप्पाओ जासहस्सारो॥ हयगयरयणुववाओ, नेरइएहिं च सव्वेसिं ॥ ३९० ॥२०
अर्थ-(तिरि) के० हस्ता अने अश्वरूप तिर्यंचरत्न तथा (त्थि) के० स्त्रीरत्न ते ( मणुअसंखाउएहिं ) के० संख्याता आयुष्यवाला मनुष्य अने ( कप्पाओ जासहस्सारो ) के० सहस्रार देवलोक सुधीना देवताओ थाय छे. ( च ) के० बला ( नेरइएहिं सव्वेसिं ) के० साते नारकोना जीवो ( हयगयरयणुववाभा) के अश्व अने हस्ती रत्नपणे उत्पन्न थाय छे. ॥ ३९० ॥ एगिदिय रयणाई, असुरकुमारेहिं जावईसाणे ॥ उववज्जति य नियमा, सेसट्ठाणेसु पडिसेहो ॥३९१॥

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