Book Title: Bruhat Sangrahani
Author(s): Chandrasuri
Publisher: Umedchand Raichand Master

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Page 251
________________ २४६ के० निश्वे (महब्भयं ) के० महाभयकारी ( अन्नाणं ) के० अज्ञान होय, (तु) के० वली ( पेलवं ) के० असार एवं ( वेयणीयं ) के० असातावेदनीय कर्म उदय आव्युं होय, ( तया ) के० त्यारे जीवने ( एगिंदियत्तगं) के० एकेन्द्रियपणुं प्राप्त थाय छे. ॥ ४४२ ॥ हवे तिची गतिमां या जीवो आवे ? ते आगतिद्वार कछे. तिरिएसु जंति संखा - उतिरिनरा जादुकष्पदेवाओ ॥ पज्जत्तसंख गब्र्भय, बायर भूदगपरित्सु ॥ ४४३ ॥ तो सहसारंतसुरा, निरया पज्जत संख गन्भेसु ॥ ६ अर्थ - एकेंद्री बद्री तंद्री चउरिंद्री तथा ( संखाउतिरिनरा ) के० संख्याता आयुष्यवाला पंचद्री तिर्येच अने मनुष्य एटला जीवो मरण पामी ( तिरिएस) के० एकेंद्री बेंद्री तंद्री चउरिंद्री अने पंचेंद्री तिर्यचने विषे ( जंति) के० जाय ले. वली भुवनपति व्यंतर ज्योतषी अने ( जादुकष्पदेवाओ ) के० सौधर्म तथा ईशान एबे देवलोकना देवताओ मरण पामीने ( पज्जत्तसंखगन्भय ) के० पर्याप्ता संख्याता आयुष्यवाला गर्भज तिर्यचमां तथा ( बायर भृदगपरितेसु) के० पर्याप्ता बादर पृथ्वीकाय अष्काय अने प्रत्येकवनस्पतिकायम उपजे ॥ ४४३ ॥ वली ( तो सहसारंतसुरा) के० सनत्कुमारथी मांडीने सहस्रार देवलोक सुधीना देवता तथा (निरया) के० नारकी ए जीवो मृत्यु पामीने ( पज्जत्तसंखगभेसु) के० पर्याप्ता संख्याता आयुष्यवाला गर्भज तिर्यचमां जाय ॥ ए तिर्य चनु आगतिद्वार क. हवे तिर्यचना भवथी मरण पामी क्यां जाय ? ते गतिद्वार कहे छे.

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