Book Title: Bruhat Sangrahani
Author(s): Chandrasuri
Publisher: Umedchand Raichand Master

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Page 250
________________ २४५ . सब्बोवि किसलओ खलु,उग्गममाणो अगंतओभणिओ सोचेव विवढ़तो, होइ परित्तो अणंतो वा ॥ ४४० ॥ , अर्थ-( सव्वोवि किसलओ) के सर्वे एवा पण किशलय जे कुंरलां (उग्गममाणो) के० उदयपामतां (अर्णतओ भणिओ) के० अनंतकाय कयां छे. परंतु (सोंचे विवतो) के तेज किसलय वृद्धि पामतां (परित्तो ) के० प्रत्येक वनस्पतिकायना किशलय प्रत्येक अने ( अणंता) के० साधारण वनस्पतिकायना किशलय अनंत वनसतिकाय ( होइ) के० होय छे. ॥ ४४० ) जं नरए नेरईया, दुख् पावंति गोयमा तिव्वं ॥ तं पुण निगोयपज्झे, अगंतगुगं मुणेयधं ॥ ४४१ ॥ ___अर्थ-श्रीवीर प्रभुए कह्यु छ के-(गोयमां) के० हे गौतम ! ( नरए ) के० नरकने विषे (नेरईया) के० नारकी जीवो (जं) के जेवा ( तिव्वं ) के० आकरा (दुरुकं ) के० दुःखने (पार्वति) के० पामे छे. (तं पुण) के० तेथी पण ( अणंतगुणं) के० अनंतगणु दुःख (निगोयमज्झे) के० निगोदनीमध्ये (मुणेयवं) के० जाणवू ॥ ४४१ ॥ हवे जीवने कया कर्मथी एकेंद्रियपणु प्राप्त थाय ते कहे थे. जया मोहोदओ तिव्वो, अन्नाणं खु महन्मयं पेलवं वेयणीयं तु, तया एगिंदियत्तणं ॥ ४४२ ।। 333 अर्थ-(जया) के. ज्यारे (तिबो) के० आकरो एवो ( मोहोदओ ) के० विषयाभिलाषरूप मोहनो उदय होय, (खु

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