Book Title: Bruhat Sangrahani
Author(s): Chandrasuri
Publisher: Umedchand Raichand Master
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अर्थ-(जोयणसहस्समहियं) के० एक हजार योजनथो अधिक (वणस्सइदेहमाणं) के प्रत्येक वनस्पतिकायनुं शरीरप्रमाण ( उदिह) के० कयु छे. ( तं) के० ते (किल) के० निश्चे (समुहगयं) के० समुइमा रहेला (जलरुहनालं) के० कमलनाल (हवइ) के० होय छे. (नने) के० ते विना बोनी वनातिनुं शरीर तेवू न होय. ॥ ४३१ ॥
हवे बेइंद्रियादिक जीवोना विशेष नामग्रहणपूर्वक उत्कृष्टथी शरीरममाण कहे छ. ॥ बारस जोयण संखो, तिकोस गुम्भी य जोयणं भमरो॥ मुच्छिम चउपय भय उरग.गाऊ घगु जोयण पहत्तं ४३२| ____अर्थ-(संखो ) के० शंखविगेरे बेन्द्रीयजीवोनुं शरीर (बारस जोयण) के० बार योजन- होय छे. ( गुम्मीय ) के० कानखजुरादिक तेइन्द्रियजीवोनुं शरीर (तिकोस) के० त्रण गाउनुं जाणवू (भमरो ) के भ्रमर विगेरे चरिन्द्रियजीवोनुं शरीर (जोयणं) के० एक योजन- होय छे. वली (मुच्छिमच उपय ) के. संमूछिम चार पगवाला गाय विगेरे जीवोनुं (गाऊपहुतं ) के० वे गाउयो नव गाऊसुधी,, (मुय) के० संमूच्छिम नोलीयादि भूजपरिसपर्नु (धणुपहुत्तं ) के. बे धनुष्यथी नवधनुष्य सुधीनु, अने ( उरग) के० उरपरिसपर्नु (जोयणपहुत्तं ) के० वे योजनथी नवयोजन सुधी, उत्कृष्टथी शरीर जाणवू. ॥ ४३२ ॥
गब्भचउप्पय छगाउ-याइ भुयगा उ गाउयपुहुत्तं ॥३०॥ (जोयणसहस्समुरगा, मच्छा ऊभयावि य सहस्सं ॥४३३॥३ पक्खिदुग धगुपुहुतं, सबागंगुल असंखभागलहु ॥
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