Book Title: Bruhat Sangrahani
Author(s): Chandrasuri
Publisher: Umedchand Raichand Master

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Page 245
________________ २४० (तो) के० तेथी असंख्यातगणु ( बायर वाउ ) के० बादर वायुकाय, होय, तेयी असंख्यातगणु (अगणी) के० बादर अग्निकायतुं शरीर जाणवू, तेथी असंख्यातगणु चादर ( आउ ) के० बादर अकोयन शरीर जाणवू, तेयो असंख्यातगणु (पुहवी) के बादर पृथ्वीकायनुं शरीर जाणवं, अने तेथी असंख्यातगणु ( निगोय ) के बादर निगोदनुं शरीर जागवू. एम ए दशे शरीर एक बीजाथी असंख्यगुणा छे. तो पग ते दरेक शरीर आंगुलना असंख्यातमा भागनुं जाणवु. (तु) के० वली (पत्तेयवणसरीरं) के० प्रत्येक वनस्पतिकायन शरीर ( अहियं जोयण सहस्सं ) के० एक हजार योजनथी अधिक होय छे. ॥ ४२९ ॥.. अहिं कोइने शंका थाय के-पूर्वे कहेला जीवोनां शरीर उत्सेधांगुलप्रमाणथी कयां छे अने समुद्र द्रह विगेरेनुं प्रमाण प्रमाणांगुलथी छे. तो एक हजार योजनना उंडा द्रहादिकमां पद्मनाल विगेरेनुं शरीर केम घटे ? त्यां ग्रंथकार उत्तर कहे छे केउस्सेहंगुलजायण-सहस्समाणे जलासए यं ।। तं वल्लिपउमपमुहं, अओ परं पुढविख्वं तु ॥ ४३० ।। ___अर्थ- ( उस्सेहगुल ) के० उत्सेवांगुलेकरी (जोयणसहस्समाणे ) के० एक हजार योजनना प्रमाणवालां (जलासए) के० जलाशय (नेयं) के० जाणवां. (तं ) के० ते (वल्लिपउमपमुहं ) के० वेल तथा कम प्रमुख एक हजार योजनथी अधिक होय छे. ( अओ परं) के० एयो अधिक उंडा जलाशयोमा घणां मोटां कमलो विगरे ने (पुढविरूवं ) के० पृथ्वीकायरूप जाणवां. ॥४३०॥ जोयणसहस्समहियं, वणस्सइदेहमागमुद्दिष्टुं ॥ तं च किल समुद्दगयं, जलरुहनालं हवइ ननं ॥४३१॥ ४४, १२

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