Book Title: Bruhat Sangrahani
Author(s): Chandrasuri
Publisher: Umedchand Raichand Master
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२४२ . अर्थ-( गम्भचउप्पय ) के० गर्भज चतुष्पद हाथी वगेरेर्नु शरीर (छगाउयाइ) के० छगाउनुं होय छे. (उ) के० वली ( भुयगा ) के० गर्भज भुजपरिसार्नु शरीर ( गाउयपहुत्तं ) के. बेगाउथी नव गाउ सुधी- होय छे. ( उरगा ) के० गर्भज उरपरिसर्प, शरीर ( जोयणसहस्सं ) के० एक हजार योजन- होय छे. नथा ( उभयावि ) के० गर्भज अने संमूच्छिम (मच्छा ) के० मत्सोनुं शरीर ( सहस्सं ) के० एक हजार योजन- होय छे. ॥ ४३३ ॥ वली (दुग) के० गर्भज अने समूच्छिम एवा (पक्वि) के० पक्षीओनुं शरीरप्रमाण (धणुप्पहुत्तं ) के० बे धनुष्यथी नव धनुष्य सुधी- होय छे. अने ( सव्वाणं) के० एकेंद्रियथी आरम्भी पंचेंद्रितिर्यंच सुधीना सर्वे जीवोन ( लहु ) के० जघन्य शरीर (अंगुलअसंखभाग) के० अंगुलना असंख्यातमा भागनु होयछे. ॥ ___ हवे बेन्द्री विगेरे जीवोनो उपपात चक्न विरहकाल कहे छे. विरहो विगलासन्नीण, जम्ममरणेसु अंतमू हु ॥४३४॥ गम्भे मुहुत्त बारसं, गुरुओ लहु समय संख सुरतुल्ला ॥ . अर्थ-(विंगल ) के वेंद्री तेंद्री अने चउरेंद्री तथा (असन्नीण ) के० सम्मुछिम पंचेंद्रितिर्यच ए दरेक जोवोनी (जम्म मरणेसु) के० जन्ममरण आश्री विरहकाल (अंतमूहु ) के० एक अन्तर्मुहूर्त्तनो (गुरूओ) के० उत्कृष्टथी जाणवो. ॥ ४३४ ॥ अने ( गम्भे ) के० गर्भज पंचेंद्रितिर्यंचनो उपपात चवन विरहकाल (गुरुओ) के० उत्कृष्टथी (मुहुत्तबारस) के० बारमुहूर्तनो जाणवो, तथा सर्वनो (लहु ) के. जयन्यथी विरहकाल ( समय ) के० एक समयनो जाणवो. वली ए बेन्द्री विगेरे जीवोनी एक समये उत्पत्ति ( सुरतुल्ला ) के० देतानी पेठे एक बे गयी संख्याता असंख्याता सुधीनी जाणवी. ॥

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