Book Title: Bruhat Sangrahani
Author(s): Chandrasuri
Publisher: Umedchand Raichand Master
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००८
बावन्न सहस्साई, पंचेव हवंति जोयणसयाई । पत्थडमंतरमेयं, छट्ठीपुढबीए नेयव्वं । ३६७ ॥
अर्थ-(छठीपुढवीए ) के० छठी तमप्रभा नरकपृथ्वीने विवे त्रण प्रतरना बे आंतरामा (बावन्न सहस्साई) के० बावन हजार अने (पंचेव जायणसयाई) के० पांचसो योजन. ( एयं ) के० एटलं (पत्थडमंतरं ) के० प्रतरं प्रतरे अंतर ( नेयव्वं ) के० जाणवं. ॥ ३६७ ॥ ( सप्तस्यां त्वेक एव प्रतर इति तत्रांतरं न संभवति ॥ उक्तं नारकाणां प्रसंगवशाद्भवनद्वारम् ॥ अर्थ-वली सातमी तमतमप्रभा नरकपृथ्वीमा एकज प्रतर होवाथी तेमां आंतरा संभवे नहीं.एम ए प्रसंगने अनुसरी नारकी जीवोनुं भवनद्वार का.
अथ नारकाणा भवगाहनाद्वारमारभ्यते । हवे ते नारकी जीवोर्नु अवगाहना द्वार एटले शरीरप्रमाणद्वार कहे छे. पउणठ्ठघणु छ अंगुल, रयणाए देहमाणमुक्कोसं ॥ २३ सेसासु दुगुणदु गुणं,पण धणुसय जाव चरिमाए॥३६॥
अर्थ-( रयणाए ) के० पहेली रत्नप्रभा नरकपृथ्वीमां नारकीओर्नु (उकोसं ) के० उत्कृष्टुं ( देहमाणं ) के० शरीर प्रमाण (पउणधणु ) के० पोणा आठ धनुष्य अने ( छ अंगुल ) के० छ अंगुलनु होय छे. अने (सेसासु ) के० वाकीनी छ पृथ्वीमां (दुगुणदुगुणं ) के० प्रथमनी नरक करतां बमणुं बमणु अनुक्रमे करवु. ते ( जाव चरिमाए ) के० जेटलामा छेल्ली नरकटः वीने विधे

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