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"आत्मा-परमात्मा की यह अभेदता ही पराभक्ति की अंतिम हद है। वही वास्तविक उपादान सापेक्ष सम्यग्दर्शन का स्वरूप है । "वह सत्यसुधा दरसावहिंगे,
चतुरांगल व्है दृग से मिल है; रसदेव निरंजन को पीवही,
गही जोग जुगोजुग सो जीवही ।" -इस काव्य का तात्पर्यार्थ वही है। आंख और सहस्त्रदल कमल के बीच चार अंगुल का अंतर है। उस कमल की कणिका में चैतन्य की साकारमुद्रा यही सत्यसुधा है, वही अपना उपादान है। जिसकी वह आकृति खिची गई है वह बाह्य तत्त्व निमित्त कारण मात्र है। उनकी आत्मा में जितने अंशों में आत्मवैभव विकसित हुआ हो उतने अंशों में साधकीय उपादान का कारणपना विकसित होता है और कार्यान्वित होता है। अतएव जिसका निमित्तकारण सर्वथा विशुद्ध आत्मवैभव संपन्न हो उसका ही अवलंबन लेना चाहिए। उसमें ही परमात्मबुद्धि होनी चाहिए, यह रहस्यार्थ है। ऐसे भक्तात्मा का चिंतन और आचरण विशुद्ध हो सकता है, अतएव भक्ति, ज्ञान और योगसाधना का त्रिवेणी-संगम साधा
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