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करूना हम पावत है तुमकी, वह बात रही सुगुरू गमकी, पल में प्रगटे मुख आगल सें, जब सद्गुरूचर्न सुप्रेम बसें ॥५॥
तनसें, मनसें, धनसें, सबसें. गुरूदेव की आन स्व-आत्म बसें. तब कारज सिद्ध बने अपनो, रस अमृत पावहि प्रेम घनो ॥६॥
वह सत्य सुधा दरसावहिंगे, चतुरांगल हे दृगसें मिल हे, रस देव निरंजन को पिवही गहि जोग जुगो जुग सो जीवही॥७॥
पर प्रेम-प्रवाह बढ़े प्रभु सें. सब आगम भेद सुउर बसें, वह केवल को बीज ज्ञानी कहे निजको अनुभौ बतलाई दिये ।।
-श्रीमद् राजचन्द्र
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