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उत्तंग हिमभुग, पर्वत-शिखरों से कल-कल निनाद कर बहते निझर-सीकर के समान शीतल व निर्मल जैनधर्म को अपने आचरण और व्यवहार की अवर्णनीय निःस्पह-कार्य-प्रणाली से जन-जन तक पहुंचानेवाले सत्प्रेरक-विश्वमंगल की पुनीत भावना के उपदेशक प्रेम, ऐक्य व पूर्ण मानवता के संदेशवाहक, दरदर्शक कलिकाल कल्पतरू विजय वल्लभ का जन्म वि. सं. 1927 कार्तिक सदी द्वितीया को हआ। बाल्यावस्था में ही मात-पित-वियोग का आकस्मिक दारुण दःख यह धारणा बना गया कि सांसारिक आधार स्वयं आधारविहीन है, सब कछ क्षणिक व अनित्य है। जीवन की शाश्वता प्रभ के ध्यान व चितन में है बाल वल्लभ की यह धारणा आयवृद्धि के साथ पुष्ट होती गई और परिणाम स्वरूप वि.सं. 1944 में राधनपर में दीक्षा के रूप में फलीभूत हुई।
कछ वर्षों के निरन्तर स्व-पर शास्त्राध्ययन तपश्चर्या एवं आत्मचितन के बल पर वे मात्र जैन समाज ही नहीं मानव समाज के समक्ष सम्प्रदायों की संकीर्ण परिधि से परे समाज-सधारक विचारक, साधक योगी व प्रसरचितक के रूप में प्रतिष्ठित हए और जन-जन के पूज्य बन गये। तभी तो सं. 1981 मार्गशीर्ष शक्ला पंचमी को अखिल श्री संघ ने आपको आचार्य पदवी प्रदान कर स्वयं को धन्य धन्य माना।
तत्कालीन भारतीय नेतागण आप श्री के क्रान्तिकारी विचारों व प्रवचनों से बड़े प्रभावित हुए। उनके श्रद्धान्वित आहवान पर आपश्री ने समाज में चेतना का संचार किया। भारत-पाक विभाजन के समय आप पाकिस्तान में थे। श्री संघ के अननय-विनय करने पर भी अकेले भारत आने से इंकार कर दिया और सम्पूर्ण श्री संघ को साथ लेकर आने की बात पर अटल रहे और उम मानवता की संकीर्णता के परिचायक, भीषण पाशविक विनाश के बीच अपने वचन व दायित्व को आपने सफलतापूर्वक निभाया।
पप गरुदेव श्रीमद बिजयानंद सरीश्वरजी महाराज आत्माराम जी साहब ने स्वर्गारोहण से पर्व कहा था वल्लभ। सरस्वती मंदिरों के निर्माण के मेरे स्वप्न को परा करना और साथ ही इस समाज की बागडोर तम्हारे हाथ में सौंपे जा रहा है। गरू वल्लभ ने गरूदेव के आदेशों का अक्षरशः पालन किया। आपने स्थान-स्थान पर स्कल, कॉलेज, गरुकल, वाचनालय, उद्योगकेन्द्र, ज्ञान भाण्डार व धार्मिक पाठशालाएं स्थापित कराई। सर्वजन हिताय का यह दृष्टिकोण वल्लभ को जन-मानस का हृदय वल्लभ बना गया।
गरु वल्लभ प्रबल साहित्य प्रेमी ही नहीं अपित साहित्य-स्रष्टा भी थे। गद्य और पद्य दोनों विधाओं में आपकी रचनाएं उपलब्ध हैं। काव्यरचनाओं में भक्ति और संगीत का माधमिश्रण पाठक व श्रोता को अनंत अस्तित्व तक पहँचा देता है। आप द्वारा लिखी गई समस्त 2600 कविताएँ, छंद, स्तवन, भजन, व पुजाएँ जैन साहित्य की नहीं अपित भारतीय साहित्य की अमुल्य धरोहर हैं।
जैन धर्म की वैयक्तिक विभिन्नता प्रथम-पृथक विचार धारावाले सम्प्रदायों से आपका मन मलीन हो उठता था। वे चाहते थे सभी सम्प्रदायों से दर एकता सूत्र में बंध कर मात्र जैन कहलायें।
कित जैन धर्म व समाज को प्रगति के पथ पर अग्रसर करनेवाले तत्कालीन विद्वद मण्डली में जैन शिक्षाशास्त्री के रूप में विख्यात ज्ञानपञ्ज चितक पंजाबकेसरी आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सरीश्वर जी महाराज महामंत्र नवकार का जाप करते हए वि. सं. 2011. आश्विन कृष्णा एकादशी को बम्बई में इस नश्वर देह का त्याग कर स्वर्ग सिधार गये। दिल्ली में बन रहा वल्लभ स्मारक आपश्री के सदपदेशों व भावनाओं को साकार रूप देने की दिशा में एक ठोस कदम है।
भारतीय समाज विशेष रूप से जैन समाज आपका सदैव ऋणी व आभारी रहेगा।