Book Title: Atmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Author(s): Shrimad Rajchandra, Udaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
Publisher: Mansukhlal Mehta Mumbai
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भगवान् ने कहा है कि 'आत्मा है, ' 'वह नित्य है, ' 'कमका कर्त्ता है, 'कर्मोंका भोक्ता है,' और 'उन कर्मोंसे निवृत्त हो सकता है, ' तथा 'उनसे निवृत्त होनेके साधन हैं' । ये छः बातें विचार द्वारा जिसे सिद्ध हो जाती हैं - जिसे इनका ज्ञान हो जाता है- उसे 'विवेक ज्ञान' या 'सम्यग्दर्शन' की प्राप्ति हो गई समझनी चाहिए। इन विषयोंका मुमुक्षुओं को विशेष करके अभ्यास करना चाहिए । कारण इन विषयोंके सम्बन्धमें विचार करनेका योग पूर्वजन्मके किसी विशेष अभ्यास या सत्पुरुषोंकी संगति से ही मिला करता है ।
अनित्य पदार्थों में जो आत्माकी मोह- बुद्धि हो रही है उससे उसे अपने 'अस्तित्व,' 'नित्यत्व' और 'अव्याबाध समाधि - सुख' का भान नहीं होता । उसकी मोह- बुद्धिके साथ इस प्रकारकी एकाग्रता चली आती है कि उस पर विचार करते करते घबरा कर उसे अपने विचारोंसे परावृत हो जाना पड़ता है। और इसी कारण पूर्वकालमें बहुत बार मोहग्रन्थिके नष्ट करनेका समय न आनेके पहले ही आत्माको अपने विचार छोड़ देना पड़े हैं। क्योंकि जिसका अनादि कालसे अभ्यास पड़ रहा है उसका, अत्यधिक पुरुषार्थ किये बिना थोड़े समयमें छोड़ा जाना अशक्य हैं । इस कारण बार बार सत्संग, सच्छास्त्रोंका अभ्यास, और सरल विचारोंके द्वारा इस विषय में परिश्रम करना चाहिए, जिससे अन्तमें नित्य, शाश्वत और अनन्त सुखरूप 'आत्म-ज्ञान' होकर अपने स्वरूपका लाभ हो । इसमें जो पहले संशय उत्पन्न होते हैं वे धैर्य और विचारसे शान्त पड़ जायँगे; और इस मार्गको छोड़ कर जो अधीरता और विपरीत कल्पनाका आश्रय लिया जायगा तो उससे आत्माको अपना
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