________________
आत्मानुशासन
बन्धका कारण कषाय है तो फिर शेष क्या बचता है जिसका कारण माननेके लिए मिथ्यात्वको स्वीकार किया जाय ? समाधान यह है कि प्रत्येक कार्यकी उत्पत्तिमें कारण दो प्रकारके होते हैं—एक सामान्य (व्यापक) कारण और दूसरा विशेष (व्याप्य) कारण। प्रकृतमें नैगमादि तीन नयोंसे बन्धके जितने भी कारण कहे गये हैं वे सब सामान्य कारण हैं तथा ऋजसूत्रनयसे जो कारण कहे गये हैं वे विशेष कारण हैं । जैसे हमारेआपके चलने में पृथ्वो सामान्य कारण है, वह न हो तो हम एक डग भी नहीं चल सकते । तथा विहायोगति नामकर्मका उदय आदि विशेष कारण है। पृथिवोपर हम भी चलते हैं, आप भी चलते हैं, ऊँट भी चलता है और सर्प आदि भी चलते हैं सो यहाँ प्रत्येककी चालमें जो अन्तर पड़ता है उसका कारण अलग-अलग होकर भी पथ्वी सबके चलनेके लिए सव अवस्थाओंमें कारण है वैसे ही प्रकृतमें भी समझना चाहिये। मिथ्यात्वमें बंधनेवाली सभी प्रकृतियोंके चारों प्रकारके बन्धका सामान्य कारण मिथ्यात्व होकर भी बन्धमें जो तारतम्य दिखाई देता है उसका कारण विवक्षित योग और कषाय हैं ऐसा यहाँ समझना चाहिये ।
(१२) प्रदेशबन्धके प्रसंगसे आगममें जो यह कहा गया है कि जो योगस्थान हैं वे ही प्रदेशबन्धस्थान हैं। इतनी विशेषता है कि प्रकृतिविशेषकी अपेक्षा वे प्रदेश बन्धस्थान विशेष अधिक हैं । सो इसका अर्थ है कि भले ही योग वही रहे पर प्रकृति भेदके कारण जो प्रदेशबन्धमें फरक पड़ता है, उसका कारण प्रकृति भेद ही है । क्योंकि एक कालमें विवक्षित योगसे जितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है, उन सब प्रकृतियोंमें मिलनेवाले प्रदेश सबको समान नहीं मिलते हैं । इसका कारण वह योग न होकर कथंचित् प्रकृतिभेद ही इसका कारण रहता है। फिर भी यदि कोई यह माने कि यहाँ प्रकृति भेदसे उन प्रकृतियोंके प्रदेशबन्धमें योग अकिंचित्कर है, प्रकृतिभेद ही उसका कारण है तो जैसे उसका यह मानना मिथ्या है वैसे ही बन्धमें मिथ्यात्वको अकिंचित्कर मानना भी मिथ्या ही है ।
(१३) इस प्रकार नयभेदसे मिथ्यात्व आदि पाँचों ही बन्धके कारण हैं ऐसा यहाँ वेदनाखण्ड प्रत्यय अनुयोगद्वारके अनुसार समझना चाहिये । आचार्य गृद्धपिच्छने भी इसी बातको ध्यानमें रखकर ही तत्त्वार्थसूत्रके ८वें अध्यायमें प्रारम्भके दो सूत्रोंकी रचना की है। वहाँ प्रथम सूत्र नैगमादि तीन नयोंकी अपेक्षा रचा गया है और दूसरे सूत्रको रचना ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा की गई है । मात्र उत्तरकालीन आचार्यों ने नयविक्क्षाको गौणकर
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org