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आत्मानुशासन
आगैं इस प्रकार सम्यग्दर्शनादिक तीन आराधना है सो शास्त्रज्ञानादिकी प्रधानताकरि प्रवृत्या हुआ भला प्रयोजनका साधक हो है, अन्यथा नांही यातें ताकै अन्तरि ज्ञानआराधना दिखावनेका अनुक्रम करता सन्ता प्राक् इत्यादि सूत्र कहै हैं-
प्राक् प्रकाशप्रधानः स्यात् प्रदीप इव संयमी । पश्चात्तापप्रकाशाभ्यां भास्वानिव हि भासताम् || १२०॥
अठ--संयमी है सो पहलै तौ दीपकवत् प्रकाश है प्रधान जाकैऐसा होइ पीछे ताप अर प्रकाश इनिकरि सूर्यवत् देदीप्यमान होइ ।
भावार्थ - मोक्षका साधक है सो प्रथम अवस्थाविषै तौ दीपक समान हो है । जैसैं दीपक तैलादि सामग्री के बलतें घटपटादिकका प्रकाशनहारा है तैसै शास्त्रादिकके बलते जीवादि पदार्थनिकौं जाननहारा हो है । बहुरि पीछे ताको सूर्यसमान होना योग्य है । जैसैं सूर्य स्वभाव ही तैं घने पदार्थका प्रकाशनिहारा, है, अर प्रतापका धरनहरा है । तैसैं स्वभावही पदार्थनिका विशेष जाननहारा होइ अर तपश्चणादिकका धारनहारा होइ, ऐसा अनुक्रम जानना ।
आगैं ज्ञान आराधनाका आराधक जीव है सो ऐसा होत संता इस कार्यकौं करै है ऐसैं कहै हैं-
श्लोक भूत्वा दीपोपमो धीमान् ज्ञानचारित्रभास्वरः । स्वमन्यं भासयत्येष प्रोद्वमन् कर्मकज्जलम् ।। १२१ ।। अर्थ--यहु ज्ञानवान जीव है सो दीपकसमान होइ करि ज्ञान - चारित्रनतें देदीप्यमान होत संता कर्मरूपी काजलकौं वमता संता आपा-परकूं प्रकाशै है । भावार्थ -- ज्ञानआराधनाका आराधक है सो दीपक समान है । जैसैं दीपक सहित भास्वर हो है, बहुरि काजलकौं वमैं है । ऐसा होता आपकौं अर पर घटपटादिककौं प्रकाशै है । तैसें ज्ञानी ज्ञान - चारित्र सहित देदीप्यमान हो है । बहुरि कर्म की निर्जरा करै है । ऐसा होता आप आत्माकौं अर पर शरीरादिककौं यथावत् जाने है ।
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आगैं तिस पूर्वोक्त प्रकार ज्ञानआराधनाका आराधक जीव है सो शास्त्रन्तै भया जो विवेक तिसपूर्वक क्रमतें अशुभ परिणाम छोरि शुद्ध परिणामकौं आश्रयकरि मुक्त हो है ऐसा दिखावता सूत्र कहै हैं-
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