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आत्मानुशासन समस्त जगत देखै है। कोऊ चन्द्रमाकै स्थानक तौ न गया, देखि न आया। तैसें महापुरुषका औगुन तिनके गुणनि ही प्रगट किया। कोऊ तिनकै स्थानक जाय देखि न आया । ___ भावार्थ-जहां अनेक गुण होइ तहां दोष न संभवै । जैसें चन्द्रमाकी प्रभाविौं कलंक न सोह्या सो प्रगट भास्या। तैसैं मुनिपदमैं औगुन न सोह्या सो प्रगट भास्या। लोग कहै देखो एते गण जिनमैं तिनमें इह दोष कैसै संभवै । अर कोऊ कहै जहां अनेक गुण होइ तहां अल्प दोषकी कहा वार्ता ? अपने तांई तौ पराए गुण ही ग्रहने ? ताका समाधान-उच्चपदवि. नीच क्रिया सोहै नांही । जैसैं उपवासी करि अर एक कण हू भक्षण करै तौ ताकू लोग भ्रष्ट कहैं । अर अव्रती निरंतर भोजन करै है ताकी कोऊ निंदा न करै । तैसैं अव्रतीमैं अनेक दोष हैं तोऊ तिनिकी कोऊ कथा न करै अर संयमी मैं रंच मात्र ह दोष होय तौ ताकी निंदा होय, जो ऐसी पदवोमैं ऐसा नीच कार्य कीया। तातै पदवी अनुसार क्रिया करनी योग्य है। . आगै कहै हैं कि असूया कहिए ईर्ष्या पराये गुणविर्षे द्वेषका आरोपण पराए अनहोते औगुन प्रगट करै, अपने अनहोते गुन प्रगट करै । अपनी महिमाकै अथि तेला आदि अनेक उपवास आचरै सो अधिक विवेक दशा होइ तब इह वृत्ति आछी न भासै अविवेकीनिकौं आछी भासै- यद्यदाचरितं पूर्व तत्तदज्ञानचेष्टितम् । । उत्तरोत्तरविज्ञानाद्योगिनः प्रतिभासते ॥२५१।। ___अर्थ-पूर्व जो जो आचरण किया, पर दोष भाषे, अपने गुण प्रगट करे, सो सव जोगीश्वरकै उत्तरोत्तर उत्कृष्ट दशाके होते अज्ञान चेष्टा भासै ।
भावार्थ-जो पराए औगुन गावना अर अपने गुन प्रगट करना ये ही सो अज्ञानीनिकू बुरी न भासै, ज्ञानतें जोगीनिकू बुरी भासै ।
आगै कहै हैं जे उत्तम ज्ञानकी परणतिसूरहित हैं अर तप उत्कृष्ट करै हैं, तोऊ तिनकै शरीरादिकविर्षे ममता बुद्धि होइ है, ताकरि कहा होइ है सो कहै हैं
हरिणीछंद अपि सुतपसामाशावल्लीशिखा तरुणायते भवति हि मनोमूले यावन्ममत्वजलार्द्रता । इति कृतधियः कृच्छारम्भैश्चरन्ति निरन्तरं चिरपरिचिते देहेऽप्यस्मिन्नतीव गतस्पहाः ॥२५२।।
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