Book Title: Atmanushasan
Author(s): Todarmal Pandit
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 234
________________ १७३ मुनिका आचरण आश्चर्यकी भूमि है भावार्थ-कर्मका उदय जीवनकै है ताविर्षे जो हर्ष विषाद करै तौ नवे कर्म बंधै, अर जो हर्ष विषाद न करै तौ नवे न बंधे, पूर्व कर्म फल दे खिर जाय यह निश्चय है। ___ आगै पुराने कर्मकी निर्जराविषं अर नवे कर्मके संवरविर्षं जो कछू हबा सो दिखावै हैं। मालिनीछंद सकलविमलबोधो देहगेहे विनिर्यन् ज्वलन इव स काष्ठं निष्ठुरं भस्मयित्वा । पुनरपि तदभावे प्रज्वलत्युज्ज्वलः सन् भवति हि यतिवृत्तं सर्वथाश्चर्यभूमिः ॥२६४॥ अर्थ-जैसें अग्नि काष्ठकं सर्वथा भस्मकरि ताके अभावविर्षे अतिनिर्मल प्रज्वलै तैसें निर्मल ज्ञान देह-गेहादिकका अभाव करि तिनिकै अभावविर्षे विमल प्रकाश करै है । यतिका आचरण सर्वथा आश्चर्यका स्थानक है। __ भावार्थ-ज्ञान प्रगट भए गेहकौं तजि, देहसौं नेह तजै, सकल परिग्रहका त्याग करि, वीतराग अवस्था धरि, ज्ञान ही निर्मल प्रकाश करै। मुनिकी अलौकिक वृत्ति है । सो पूर्णज्ञान मुनि ही कै होय, गृहस्थकै अल्प होय। आगे कहै हैं कि मुक्त अर संसार दशा जीवकै साधारण हैं। अर जे ज्ञानादि गुणके नाश करि मुक्ति माने हैं तिनिकी श्रद्धा निराकरण करता कहै हैं गुणी गुणमयस्तस्य नाशस्तन्नाश इष्यते । अत एव हि निर्वाणं शून्यमन्यैर्विकल्पितम् ॥२६५॥ अर्थ-गुणी कहिए आत्मा सो ज्ञानादि गुणमई है, ज्ञानादिकका नाश सो आत्माका नाश । जैसैं उष्णताके अभाव अग्निका अभाव । कई एक दीपके अंत होने तुल्य निर्वाण मानै हैं सो निर्वाण नाहीं। ज्ञानकी पूर्णता सो ही मुक्ति है, द्रव्य है सो गुणमई है । गुणका नाश सो द्रव्यका नाश । अजातोऽनश्वरोऽमूर्तः कर्ता भोक्ता सुखी बुधः । देहमात्रो मलैर्मुक्तो गत्वोर्ध्वमचलः प्रभुः ।।२६६।। अर्थ-आत्मा कबहू उपज्या नाही, अर कबहू मरै नांहीं, अर जाकै कोऊ मूर्ति नाही अमूर्तीक है, व्यवहारनयकरि कर्मनिका कर्ता है, निश्चय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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