Book Title: Atmanushasan
Author(s): Todarmal Pandit
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 233
________________ १७२ आत्मानुशासन आगे कहै हैं जो बाह्य वृत्तिका निरोध करि कर्मके फलकू भोगवै हैं तिनिके परिणामकी विशेषताकी प्रशंसा करै हैं शार्दूलविक्रीडितछंद यत् प्राग्जन्मनि संचितं तनुभृता कर्माशुभं वा शुभं तवं तदुदीरणादनुभवन् दुःखं सुखं वागतम् । कुर्याद्यः शुभमेव सोऽप्यभिमतो यस्तूभयोच्छित्तये सर्वारम्भपरिग्रहग्रहपरित्यागी स वन्यः सताम् ॥२६२।। अर्थ-जीवनै पूर्व जन्मविर्षे जे शुभ अथवा अशुभ कर्म उपार्जे तिन कर्मनिकू दैव कहिये । तिनकी प्रेरणातै जीव सुख दुख भोगवै है । सो इनि जीवनिमें जो अशुभ तजि शुभकौं आदरै सोऊ भला कहिए । अर जो योगीश्वर शुभ अशुभ दोऊनिहीके विनाशिवे अथि सर्व आरंभ परिग्रहरूप क्रूर ग्रहका त्यागी होय सो सत्पुरुषनिकरि वंदनीक है । - भावार्थ-जगतके जीव पापविर्षे प्रवीण हैं । कोई एक शुभ परिणामी दीखै है सोऊ भला कहिए है । अर जे शुभ अशुभ दोऊ ही तजि करि केवल शुद्धोपयोगरूप आत्म-स्वरूपविषे तल्लीन हैं तिनकी महिमा कौन कहि सकै ? ते सत्पुरुषनि करि वंदनीक हैं। ___ आगै कोऊ प्रश्न करै है कि सुख दुख कर्मनिके फल भोगवै हैं तिनिके नवे पुन्य-पाप बंधते होंहिंगे । तात दोऊनिका नाश कैसे होइ ? ताका समाधान करै हैं शिखरणी छंद सुखं दुःखं वा स्यादिह विहितकर्मोदयवशात् कुतः प्रीतिस्तापः कुत इति विकल्पाद्यदि भवेत् । उदासीनस्तस्य प्रगलति पुराणं न हि नवं समास्कन्दत्येष स्फुरति सुविदग्धो मणिरिव ।।२६३।। अर्थ-सुख अथवा दुख होइ है सौ पूर्वोपार्जित कर्मके उदय” होय है । सो जो कदाचि सुख विर्षे प्रीति होय, दुःखविर्षे आताप मानै तौ नवे कर्म अवश्य बंधै । अर जे महापुरुष हर्ष विषाद न करै-कौनसों प्रीति करिये अर कौनको आतापकरि मानिये ऐसे विचारते जे अतिउदासीनतारूप हैं तिनकै पुरातन कर्म तौ खिपै, अर नवे न बंधे । ते विवेकी महामणिकी नांई सदा प्रकाशरूप ही हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250