Book Title: Atmanushasan
Author(s): Todarmal Pandit
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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१६८
आत्मानुशासन ____ अर्थ-कल्याणके अर्थी जे महामुनि ते ऐसा जानि देहसूनेह तजि आनंदरूप भए । कहा जान्यां ? जैसैं अग्निके संयोग” जल तप्तायमान होय है तैसैं देहके संयोगतँ मैं तप्तायमान भया । इह जानि कल्याणके अर्थी महा मुनि देहसू ममत्व तजि आनंदरूप भए । ____भावार्थ-या जगतविर्षे इह जीव जेते दुःख क्लेशादि भोगवे हैं ते शरीरके संबंध” भोगवै हैं। तातै शरीरसू अनुराग तजि मोक्षाभिलाषी जीवनिकू वीतरागभाव आचरना योग्य है । जाकरि बहुरि शरीरका संबंध न होय ।
आगै शरीरादिविर्षे ममता भावका कारण महा मोह ताके त्यागका उपाय कहै हैं
अनादिचयसंवृद्धो महामोहो हृदि स्थितः । सम्यग्योगेन यैर्वान्तस्तेषामूचं विशुद्धयति ॥२५५॥ .
अर्थ-जिन महापुरुषनि सम्यग्योग कहिये स्वरूपविर्षे चित्तका निरोध, सोई भई औषध ताकरि अनादि कर्मनिके संचयकरि हृदयविर्षे तिष्ठता महामोह सो वमि डारया, तिन हीका परलोक शुद्ध होय ।
भावार्थ-जैसैं औषधिके योगकरि उदरविर्षे तिष्ठता अजीर्ण जिनने वम्या तिनहीकै रोगकी निवृत्ति होइ । रोग चिरकालतें अजीर्णके संचयकरि बढया है सो औषधिकै योग ही तें दूरि होइ तैसें विभावनि करि बढ्या जो कर्म-विकार सो सम्यग्ज्ञान ही करि निवृत्ति होइ । - आगै महामोहके अभावकू होते संतै जे मुनि इन वस्तुनिकू या भांति देखे हैं तिनकै कौन सुखकै निमित्त न होइ? सब ही सुखकै निमित्त होइ
शार्दूलविक्रीडितछंद एकैश्वर्य मिहकतामभिमतावाप्ति शरीरच्युति दुःखं दुष्कृतिनिष्कृतिं सुखमलं संसारसौख्योज्झनम् । सर्वत्यागमहोत्सवव्यतिकरं प्राणव्ययं पश्यतां किं तद्यन्न सुखाय तेन सुखिनः सत्यं सदा.साधवः।।२५६।।
अर्थ-जे एकाकीपनेकौं एक अद्वितीय चक्रवत्तिपना मानै हैं, अर शरीरके विनाशकू मन वांछित पदार्थकी प्राप्ति माने हैं, अर दुष्कर्मकी निर्जरा शुभका उदय ताहि दुःख मानै हैं, अर सर्वथा संसारके सुखका
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