Book Title: Atmanushasan
Author(s): Todarmal Pandit
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 228
________________ परमें परत्वबुद्धि ही ज्ञानीका लक्षण १६७ : अथ-निश्चयसेती महातपस्वीनि हू के आशारूप वेलिकी सिखा तरुणताकू आचरै, जौ लगि मनरूप जडविर्षे ममतारूप जलकी आव है तौ लगि आसा बेलि कैसै सुखै । ऐसा जानि विवेकी पुरुष या अपनी देहविर्षे ह अत्यंत उदास हैं, शरीरके जीवे मरिवेकी वांछा नाँही । यद्यपि शरीरसूचिरकालतें परिचय है तथापि मुनिकै ममता नाहीं, देहर्ते निस्पह हैं । कष्ट साध्य जे त्रिकाल योगादिक तिनकरि निरंतर शरीरकू दमैं ही हैं । शीतकालमें जलकै तीर, उष्णकालमैं गिरिकै शिखर, वर्षा कालमैं तरुतल निवास करैं सो त्रिकाल योग कहिये। ... भावार्थ-'जैसै बेलिकी जड़ जलतें सीचिए तौ ताकी शिखा सदा हरित ही रहै तैसैं अशुद्ध भाव सो ममतारूप जलतें सजल रहै तौ आशारूप बेलिकी शिखा सदा तरुण ही रहै । आगै याही अर्थकू दृष्टांतद्वार करि दृढ़ करै हैं रथोद्धता छंद क्षीरनीरवदमेदरूपतस्तिष्ठतोरपि च देहदेहिनोः। भेद एव यदि भेदवत्स्वलं बाह्य वस्तुषु वदात्र का कथा ।।२५३॥ .. अर्थ-जो जीव और शरीरही मैं निश्चयसेती भेद है तौ अत्यन्त ही जुदे जे पुत्र कलत्रादि अथवा शिष्यादिक बाह्य वस्तु कहौ तिनकी कहा कथा ? वै तौ प्रगट जुदै ही हैं। अर जीव और देह क्षीर नीरकी नाई यद्यपि अभेदरूप तिष्ठे हैं तथापि निश्चयसेती जुदे ही हैं। ____भावार्थ-तैजस कार्मण तौ सब संसारी जीवनिकै सदा लगि ही रहे हैं। कबह जुदे होते नाहीं । जव जीव मुक्त होइ तब वे छूटें । अर आहारक शरीर कबहू एक मुनिक होइ है। अर मनुष्य तिर्यंचनिकै औदारिक, देवनारकीनिकै वैक्रियिक सो इनिका संबंध होइ है, छूट है । अनादि कालका शरीरसू संबंध जीवकै है । जीव अर शरीर क्षीर-नीरकी नाई मिलि रहे हैं, तेऊ जुदे, तौ पुत्र कलत्रादिक अर शिष्यादिककी कौन बात? वै तौ प्रगट जुदे ही हैं ऐसा जानि सर्वतें नेह तजो। आगै था शरीरके संयोग” आत्माकै जो होइ है सो दिखावै हैं:तप्तोऽह देहसंयोगाज्जलं वाऽनलसंगमात् । इति देह परित्यज्य शीतीभूताः शिवैषिणः ॥२५४॥ १. जैसै बेलकी जड अशुद्ध भाव सो मु० २५२, ४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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