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आत्मानुशासन - भावार्थ-लोकविर्षे घने सुखकै अर्थि किंचित् सुखको छांडै' ताका बड़ा आश्चर्य नाहीं । सर्वथा दुखदायक जो विष ताकौं छोडि बहुरि ताके खानेकै अथि बड़ा पदकौं छांडै ताका बड़ा आश्चर्य होय है। तातें इहां भी मोक्ष सुखकै अथिं चक्रवर्तिपदकौं छांडै ताका कहा आश्चर्य है । जो सर्वथा दुखदायक जे विषय तिनकौं छोडि, बहुरि तिनके सेवनेके अथि त्रिलोक पूज्य मुनि पदकौं छांडै है सो यह बड़ा आश्चर्य है । ऐसा अनर्थ कैसे बने है। ____आगें तप त्यजनेवालौंका बहुरि आश्चर्य करत संता सूत्र कहै हैं
वसंततिलकाछंद शय्यातलादपि तुकोऽपि भयं प्रपातात् तुङ्गात्ततः खलु विलोक्य किलात्मपीडाम् । चित्रं त्रिलोकशिखरादपि दूरतुङ्गाद्
धीमान् स्वयं न तपसः पतनाद्विमेति ॥१६६।। अर्थ-तुक कहीए बालक है सो भी आपकै पीड़ा होती देखि ऊंचा जो शय्यातल तिसतें भी पडनेते डरै है । अर येहू निश्चय करि बडा आश्चर्य है जो बुद्धिवान पुरुष तीन लोकका शिखर समान अतिशय करि ऊंचा जो तप तिसरौं भी आप पड़ने” नांही डरै है।
भावार्थ-बालक विचार रहित है सो भी थोरी सी ऊंची शय्या तिसत पडनेतें भयवान हो है। वाकै भी इतना विचार है जो इहांतें पड़े मेरै पीडा ज्पजेगी । बहुरि यहु मुनि लिंगका धारी है सो तो विचारवान है । बहुरि यह तप है सो तीन लोकका शिखर समान ऊंचा है । इहां तीन लोकके जीव तपकौं बडा पूज्य माने है, तातें ऊंचा जाननां । सो इसतें भ्रष्ट होता नाहीं, भय करै है। आप ही भ्रष्ट हो है । इतना न विचारै है-इसतें भ्रष्ट भए मोकू इस लोकविर्षे हास्यादिक पीडा होइगी, परलोकविर्षे चिरकाल पर्यत नरक, निगोदादिके दुख भोगवने होहिंगे सो यह बड़ा आश्चर्य है । अहो लोकविर्षे तौ ऊंचा पद पायें पीछै पराधीनपने भी नीचा होतें इतनी लज्जा हो है तहां अपघातादिक करना विचार है। यह ऐसा निर्लज्ज भया है मुनिपद सारिखा ऊंचा पद पाइ आप ही स्वाधीन भ्रष्ट होइ नीचा हो है । १. छोड़े, ज० १६५,८ २. पडनेते नहीं डरे है ज० १६६,६ ३. तपको पूज्य, मु. १६६,११
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