Book Title: Atmanushasan
Author(s): Todarmal Pandit
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 205
________________ १४४ आत्मानुशासन करै । अर जो श्रावक निर्दोष औषध आहारादिक दे तो निराग भावनितें ले, राग भाव न करै। __ आगै कहै हैं औषधादिक करि रोग न मिटै तौ ज्ञानीनिकू शरीर नाश होनेका भय न करणां, मरणका भय अज्ञानीनिकै होय है शिरःस्थं भारमुत्तार्य स्कन्धे कृत्वा सुयत्नतः । शरीरस्थेन भारेण अज्ञानी मन्यते सुखम् ॥२०६।। अर्थ-जैसैं कोऊ शिरका बोझ उतारि कांधे धरि सुख मानै तैसैं जगतके जीव रोगका भार उतारि शरीरके भारकरि सुख माने हैं। भावार्थ-जगतके जीव रोग गए शरीर रहे सुख मानें हैं अर ज्ञानी जीव शरीरका संबंध ही रोग जानैं हैं। तातै शरीर जाय तौ विषाद नाही। जैसा शिरका भार तैसा ही कांधेका भार । जैसैं रोगका दुख तैसा ही देह धारणका दुख है। आर्गे याही अर्थकू दृढ़ करै हैयावदस्ति प्रतीकारस्तावत् कुर्यात्प्रतिक्रियाम् । तथाप्यनुपशान्तानामनुद्वेगः प्रतिक्रिया ।।२०७।। अर्थ-जौ लौं रोगकी उपशांतता होती दीखै तौलौं योग्य औषधादिकका ग्रहण करै तो करै अर जो रोग न मिटै तौ विकल्प न करै। शरीरस उदास होना निर्विकल्प रहना यही बड़ा यत्न है । भावार्थ-जेते शरीरकी स्थिति है तेतै रहै ही है । अर स्थिति पूर्ण भए कदाचित् न रहै तातें हर्ष शोक नाही। आर्गे शिष्य पूछे है:-कौन उपाय” शरीरसू उदासीनता करनीयदादाय मवेज्जन्मी त्यक्त्वा मुक्तो भविष्यति । शरीरमेव तत्याज्यं किं शेषैः क्षुद्रकल्पनैः ॥२०८।। अर्थ-तंजस कार्मण मूल शरीर हैं तिनिके योग” नवे नवे शरीर धरि संसारी जीव भ्रमण करै है। मनुष्य अर तिर्यंच होय तब औदारिक शरीर धारें। देव अर नारकी होय तब वैक्रियिक देह धारै। अर तैजस कार्मणके अभावतें शरीर न धरै तब मुक्त होइ । शरीरका धारण सोई संसार । ताशरीरका संबंध त्याज्य ही है। क्षुद्र विकल्पनि करि कहा? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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