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आत्मानुशासन
हो है, तातैं दीनता न करनी । इहां कोऊ पूछे - दीनताविषै ऐसा पाप कहा है ? ताका उत्तरः.... दीन पुरुषकै लोभकषाय ऐसा तीव्र हो है जाकरि अन्य कषाय भी निर्बल होइ जाइ, लोक लज्जा भी मिटि जाइ, धर्मकों भी गिनै नांही। बहुत कहा, धर्म सर्वोत्कृष्ट है ताकौ भी अपमान कराय अपना प्रयोजन साध्या चाहै, तातें दीनता महापाप है ।
आगै चाचकनिका मनोवांछित अर्थकी सिद्धि न करे ऐसा जु ईश्वरपनां तिसतें दरिद्रपना ही भला है ऐसें दिखावता सूत्र कहै हैं
सस्वमाशासते सर्वे न स्वं तत् सर्वतपि यत् । अर्थिवैमुख्यसंपादिसस्वत्वान्निस्वता वरम् ॥१५५॥
अर्थ – सस्व कहिये धनादिक सहित पुरुष ताकौं सर्व ही जाचे, अर ऐसा धनादिक होइ नांही, जो सर्वकौं तृप्त करें । तातैं अर्थीनिकौं विमुखका करनहारा ऐसा जु धन सहितपनां तिसतैं धन रहितपनां है सो ही भला है ।
भावार्थ- कोऊ जानैगा कि धनवान भए अर्थीनिके मनोरथ पूर्ण A है । तैं धनवान होना भला है, सो ऐसें तौ धनवानपनां 1 'काहू कै न होइ जाकरि सर्व अर्थीनिके मनोरथ पूर्ण करि सकै, अर किंचित् धनवानपनां होइ तब सर्व अर्थी याकी आशा करै । तहां सर्वकी आशा पूर्ण होइ नांही, तब वै अर्थी या दुखी होइ विमुख हो हैं । तातैं ऐसे धनवानपनांतें निर्धनपनां ही भला है । निर्धन भए कोऊ याकी आशा न करे । प्रत्यक्ष देखो धनवानके राजा मित्र स्त्री पुत्र याचकादि सर्व लागू होइ अर निर्धन कें कोऊ लागू न होइ । तातैं दातार होनेके अर्थि धनवान होनेकी चाहि करिये है तहां लोभ अर मानका आधिक्य जाननां । जो स्वयमेव धनवान होइ अर सर्वत्याग न करि सकै तहां दान देने मैं किछू लोभका त्याग भया ताकरि तितना ही भला हो है । तातैं तिसकू दान देनौ कया है । बहुरि दानका छलकरि धनवानपनाकौ भला जानना योग्य नांही |
आगैं जे धनवानकौं जाचे हैं तिनकैं आशारूपी खानि कैसी है ऐसा कहै
हैं—
आशाखनिरतीवाभूदगाधा
निधिभिश्च या ।
सापि येन समीभूता तत्ते मानधनं धनम् ॥१५६॥
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