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विषयविरक्तिका सहज उपाय नाशकरि कर्म वैरीनै तोकौं भ्रष्ट कीया है। बहुरि तूं दीन होइ तिस कर्म उदयतें उपज्या किंचित् विषयसुख तिनिकरि संतुष्ट हो है सो तूं निर्लज्ज है, धिक्कार देने योग्य है । बहुरि जैसैं उस राजाके वैरीका दिया भी महाकष्टतै बुरा भोजनादिक मिलै अर तहां वह राजा संतुष्ट होइ तौ वह बहुत निंद्य है । तैसें हे भ्रष्ट मुनि ! तेरे कर्मका दीया भी बहुत सुख नाही। घ. उपवासादिक कष्ट सहै तब गृहस्थकै घर जैसा तैसा आहार मिले, अर तहां अपनी तूं आजीविकाकी थिरता भई मानि संतुष्ट हो है, तातें तूं बहुत निंद्य है। तारौं जैसे उस राजाकौं अपने वैरीके नाश करनेका उपाय करना योग्य है, तैसे तोकू कर्मका नाश ही करना योग्य है । विषयाशक्त होना योग्य नाही।
आगै जो तेरै इन्द्रिय सुखका अभिलाष है तो होहु तथापि जहां विशिष्ट इन्द्रिय विषय हैं ताकौं दिखावता सूत्र कहै हैं
तृष्णा भोगेषु चेद्भिक्षो सहस्वाल्पं स्वरेव ते । प्रतीक्ष्य पाकं किं पीत्वा पेयं भुक्तिं विनाशयः ॥१६१।।
अर्थ-हे भिक्षुक मुनि ! तेरै जो विषय भोगनिविर्षे ही चाहि है तो थोरासा सहनशीली होहु । ते भोग स्वर्गविर्षे हैं। रे मूर्ख ! पचता भोजनकौं देखि अर पीवने योग्य जलादिक ही कौं पीय करि कहा भोजनका नाश करै, ऐसैं मति करै। ___ भावार्थ-जैसे कोई भूखा मूर्ख पचता भोजनकू प्रत्यक्ष देखि जेतें भोजन पचै तेतें धैर्य न करै । इतने काल भूख न सहै। अर किछू भोजनसंबंधी जलादिक ही कौं पीय भोजनका नाश करै। तैसें तूं विषयनिका अभिलाषी मूर्ख धर्म साधनतें थोरासा ही कालमैं स्वर्गकी प्राप्ति होय। तहां विशेष विषय मिलै, ताको विचार । जेतें यह मनुष्यका आयु पूर्ण होय स्वर्ग मिले. तेतें धैर्य न करै, इतने काल चाहिकौं न सहै। अर किछ इहां सदोष भोजनादिक विषय तिनहीकौं सेय करि स्वर्ग सुखका नाश करै है। सो ऐसा कार्य तूं क्यों करै है, मति करै। जो भोगनि ही की वांछा है तो थोरेसे काल धैर्य राखि, धर्म साधन करि, तोकू स्वर्गविर्षे बहुत विषय मिलेंगे । यद्यपि विषयाभिलाष योग्य नाही, तथापि इहां भ्रष्ट होता जीवकौं लोभ दिखाइ थाम्यां है ऐसा भाव जानना। ___ आगै कर्मकरि इन्द्रियसुख अर जीवितव्य ए दोय कार्य निपजाइए है। बहुरि जे ऐसे मुनि हैं तिनिका कर्म कहा करै, ऐसा दिखावता निर्धनत्वं इत्यादि श्लोक कहै है
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