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संसारसे विरक्त न होनेके कारण
अर्थ - यह मुक्ति लक्ष्मीरूपी मनोहर स्त्री उत्तम नायिका है सो सामान्य जननिकरि वर्जित है, जिस तिसके याकी प्राप्ति न होइ सके है । बहुरि जगतविर्षं प्यारी है, याका स्वरूप जानें याकौं सर्व चाहै ऐसी है । बहुरि गुणनविष स्नेहवती है । जाविषं गुण होइ तिस ही कौं याकी प्राप्ति हो है ऐसी यह है । ताकौं प्राप्त होनेकै अर्थि जो तेरे इच्छा पाइए है तौ तूं तिस मोक्षलक्ष्मी ही कों रत्नत्रयादिकनितें आभूषित करि । बहुरि प्रकटप अन्य लौकिक स्त्रीनिकी वार्ताकौं भी छोरि । बहुरि तिस मोक्षलक्ष्मी ही विषै अनुरागकौं विस्तारि बधाइ । ऐसें ही तुझकौं मोक्षलक्ष्मीकी प्राप्ति होसी । जातें स्त्री है ते बाहुल्यपनें ईर्ष्यासहित हो है ।
भावार्थ-इहां अलंकारकरि मोक्ष लक्ष्मीकों स्त्री कही, सो जैसैं कोई पुरुष कोई स्त्रीकों अपनें वश्य किया चाहै तब वह और स्त्रीनिकी वार्ता भी न करें । वाहीविष अनुराग बधावे । आभूषणादिकनि करि वाक प्रसन्न करै । तैसैं तूं मोक्ष लक्ष्मीहीको चाहै है तो लौकिक स्त्रीनिकी वार्ता भी मत करे । वाहीविषै प्रीति बधाइ । रत्नत्रया दिकतैं वाका साधन करि, यहु उपाय है । बहुरि जैसैं स्त्रीनिके परस्पर ईर्ष्या पाइए है, तातैं विरोध लिएं जे दोइ स्त्री तिनविर्षं एक ही का साधन बनें तैसें मोक्षलक्ष्मी के अर लौकिक स्त्रीनिकै परस्पर ईर्ष्या विपरीतता है । तातैं विरोध लिएं जो मोक्षलक्ष्मी अर लौकिक स्त्री तिनविर्षं एक ही का साधन होगा। तातैं लौकिक स्त्रीनिकौं छोरि मुक्तिलक्ष्मीका साधन करना ।
हरिणी छन्द वचनसलिलैर्हास स्वच्छैस्त रंगसुखोदरैः
वदनकमलैर्बाह्ये रम्याः स्त्रियः सरसीसमाः । इह हि बहवः प्रास्तप्रज्ञास्तटेsपि पिपासवो विषयविषमग्राहग्रस्ताः पुनर्न समुद्गताः ।। १२९ ॥
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अर्थ - स्त्री सरोवरी समान है, ते हास्यरूपी स्वच्छता लीएं अर वक्रोक्ति आदि तरंग सुखकारी जिनिकै गर्भित पाइए ऐसे वचनरूपी जल तिनिकरि, बहुरि मुखरूपी कमल तिनिकरि वाह्यविषै रमणीय हैं । सो इनि स्त्रीरूपी सरोवरीनिविर्षं बहुत निर्बुद्धी जीव तट ही विषै तृष्णावंत होत संते विषयरूपी विषम गोह' ता करि से हुए बहुरि नांही निकसे ।
१. ग्राह अर्थ में ।
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