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तपका फल
करनी । बहुरि आराधनेविषै किछू क्लेश होइ तो खेद उपजै, सो सेवन इतना ही - भगवान आत्माका चरण वा आचरण ताका स्मरण करना । बहुरि साधन करतें किछू अपना जाता होइ तौ भी दुःख होइ । सो जाका नाश किया चाहिए ऐसा कर्म ताहीका नाश हो है, अपनां किछू खरच होता नाहीं । बहुरि जो साधनका तुच्छ फल होइ तौ किछू कार्यकारी नांहीं, सो ध्यानका फल सर्वोत्कृष्ट मोक्ष है । बहुरि बहुत कालपर्यन्त साधन करना होइ तहां भी खेद उपजै, सो थोरे ही काल ध्यान कीएं ही फल पाईए है । बहुरि जो साधन पराधीन होइ तो भी खेद होइ, सो अपने मन ही का साधन करनां, अन्य विचारतैं छुडाय भगवन्तविषै लगावना । सो ऐसा ध्यानरूप तप तिसविषै खेद कहा । सो तूं ही विचारि । तप करनेविषै अनादर मति करै । कोऊ कहैगा ध्यानविर्षं तौ कष्ट नांही, परन्तु अनशनादि तपविषै कष्ट है । ताका उत्तर - अनशनादि तपविषै कष्ट तब होइ जब आप न किया चाहै । सो इहां तो जैसे अपना परिणाम प्रमादी न होइ अर क्लेशरूप भी न होइ तैसै ध्यानकी सिद्धिकै अर्थि चाहिकरि अनशनादि करिये है । तातै तहां भी कष्ट न हो है ।
आगै आत्म-कल्याणरूप जो मोक्ष ताकै वांछक जै पुरुष तिनकै तप बिना और कोई सामग्री वांछित फलकी दाता नाहीं ऐसे कहैं हैंहरिणी छन्द द्रविणपवनप्राध्मातानां सुखं किमिहेक्ष्यते किमपि किमयं कामव्याधः खलीकुरुते खलः । चरणमपि किं स्प्रष्टुं शक्ताः पराभवपांसवो वदत तपसोऽप्यन्यन्मान्यं समीहितसाधनम् ।। ११३॥
अर्थ — धनसम्बन्धी विचार सो ही भया पवन, ताकरि धाए' हुए तप्तायमान भए जे जीव, तिनकौं इहां कहां सुख अवलोकिए है । यहु दुष्ट कामरूप अहैडी' किछूक अदुष्ट आत्माको दुष्ट करे है । बहुरि कष्टरूपी धूलि है ते कहा चारित्रका स्पर्शनेकों समर्थ है, अपि तु नांही है । तुम कहो, तपतैं और कोई माननें योग्य मन वांछित अर्थका साधन कौन है |
भावार्थ - जगतविषै यह जीव जितनेक कार्य करे है सो मानादिककै अर्थि करै है । अपनां प्राणहू देकर बडा हुवा चाहे । बहुरि मानादिकके
१. धौंकनी से धौंकना ।
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२. व्याध ।
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