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आत्मानुशासन काहेको सीख सुनैं। बहुरि दुःखौं अतिशय करि डरता होइ, जातें जाकै नरकादिकका भय नाहीं सो पाप छोड़ने का शास्त्र काहे को सुनें । बहुरि सुखका अभिलाषी होइ, जाते आगामी सुख चाहै तो धर्म साधनका शास्त्र सूनै । बहरि श्रवण आदि बद्धिका विभव जाके पाइये ऐसा होइ । तातें सुननेकी इच्छाका नाम शुश्रूषा' है । सुननेका नाम श्रवण है। मनकरि जाननेका नाम ग्रहण है । न भूलने का नाम धारणा है। विशेष विचार करनेका नाम विज्ञान है। प्रश्नोत्तर करि निर्णय करना ताका नाम ऊहापोह है। तत्त्व श्रद्धानके अभिप्रायका नाम तत्त्वाभिनिवेश है। ऐसे ए बुद्धिके गुण हैं सो जाके पाइए है, जातें इनि बिना शिष्यपनारे बनें नाहीं । बहुरि सुखकारी, दया गुणमई, अनुमान आगम करि सिद्ध भया ऐसा जो धर्म ताकौं सूनि करि, विचार करि ग्रहण करता होइ; जातें ऐसा ही धर्म, ऐसे ही शिष्यकै कार्यकारी हो है । बहुरि नष्ट भया है खोटा हठ जाकै ऐसा होइ; जातें हठ करि आपाथापी होइ ताकौं सीख लागै नाहीं।
भावार्थ-ऐसा गण सहित होइ सोई धर्म कथाके सूननेका अधिकारी होइ, वाहूका भला होइ । इनि गुणनि विनां धर्म कथाका सुनना कार्यकारी न हो है।
आगैं कहै हैं-ऐसा शिष्य है सो गुरु उपदेश” सूखका अर्थीपना करि धर्म उपार्जन ही के अथि प्रवर्तो; जातें ऐसा न्याय है
आर्या छंद पादादुःखं धर्मात्सुखमिति सर्वजनसुप्रसिद्धमिदम् । तस्माद्विहाय पापं चरतु सुखार्थी सदा धर्मम् ।।८।।
अर्थ-पाप तैं दुःख हो है, धर्म तैं सुख हो है। ऐसैं यहु वचन सर्व जननि विर्षे भले प्रकार प्रसिद्ध है। सर्व ही ऐसैं मानै हैं, वा कहै हैं । ता” सुखका अर्थी है जाकौं सुख चाहिये सो पाप को छोड़ि सदाकाल धर्मकुंआचरौ । ___भावार्थ-पापका फल दुःख अर धर्मका फल सुख ऐसे हम ही नाहीं कहैं हैं, सर्व कहैं हैं। तातें जो सुख चाहिये है तो पाप छोड़ि धर्म कार्य करो। १. शुश्रुशि ज० उ० ७-३ २. शिष्यपावना ज० उ० ७-६ ३. आचरै ज० पू० ८-६
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