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आत्मानुशासम
आधीन हुवा बहुत काल तांई बधनेका लोभ करि अंतर्वांत जो माताका चाव्या हुवा अन्न ताकौं अपने मुखरूपी छिद्रविर्षं चाहता भया । कोई बूँद मेरे मुखमें परे ऐसें मुख फार रहै है । कैसा है वह प्राणी ? क्षुधा तृषाकरि पीड़ित है । बहुरि उदरका स्तोक क्षेत्र है, तातें तहाँ हलना - चलनारहित है स्वरूप जाका ऐसा है । बहुरि उदरविषै निपजै हैं लट आदि जीव तिनका सहचारी साथी है । ऐसें गर्भविषै अवस्था हो है सो हे प्राणी ! मैं ऐसें मानौं हौं:-- ऐसा जन्म अवस्थाविषै क्लेश हो है । तातें डरया हूवा जन्मका कारण जु है मरण तिसतें डर है ।
तैं
भावार्थ —शरीरसंबंधतें नरकादिविषै दुःख हो है सो तो दूरि ही तिष्ठौ, यहु उत्तम मनुष्य पर्याय पाया है ताका ग्रहण करता गर्भविषै तोकौं कैसा दुख भया ताका तौ चितवन करो। हम तो यहु माने है जो तूं मरणतें डरे है सो मरण भए पीछे नवीन जन्म धरना होगा । जन्मविषै तैं दुख पाया है तिसका भयतें तेरे मरणका भय पाइए है। ऐसा शरीरकी उत्पत्तिविषै दुःख जानि जन्मका दुःख न होइ सो उपाय करना ।
आगैं सम्यग्दर्शनका लाभतें पहले भए जे पर्याय तिर्नाविषै तें सर्व कार्य अपना घात ही कै अर्थ आचरन किया ऐसा कहै हैं
वंसस्थ छन्द
अजाकृपाणीयमनुष्ठितं त्वया विकल्पमुग्धेन भवादितः पुरा । यदत्र किंचित् सुखरूपमाप्यते
तदायें विद्धयन्धकवर्तकीयकम् ॥ १०० ॥
अर्थ- हे आयं भोला जीव ! तैं इस पर्यायतें पहलें अजाकृपाणीय कार्य कीया। जैसै अजा जो छेली ताक मारने के अर्थ कोई छुरी चाहता था । बहुरि उस छेलीनें खुरतें खोदि छुरी काढ़ी तिसतें वाका मरण भया । तैसें जा कारणकरि तेरा घात होइ, बुरा होइ सोई कार्य किया । कैसा है तूं ? विकल्प जो हेय- उपादेयका विचार ताविषै मूर्ख है । बहुरि इस संसार - विषें जो किछू सुखरूप विषयादिकका सेवन पाइए है ताकूं तूं अंधकवर्त - कीयक जानि । जैसें आंधा ताली दैतें बटेरकौं पकड़े ताका बड़ा आश्चर्य है, तैसैं संसारविषै थोरा भी सुख होनेका बड़ा आश्चर्य जाननां ।
भावार्थ - हे जीव ! तैं छेलीकी छुरीवत् अपनां बुरा होनेका कार्य किया । बहुरि इस पर्यायविर्षं तोकों किछू विषयसेवनतैं सुखसा भया ताकरि तूं जाने है मेरी ऐसी ही दशा रहैगी । ऐसें जानि निश्चित भया है ।
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