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दया, दम और समाधिका मार्ग जो तोकों यहु फल बुरा लागें है। जैसैं अज्ञानादिरूप परिणमैं है तैसे परणमना छोरि । बहुरि अज्ञान असंयमतें उलटा सम्यग्ज्ञान चारित्र है ताका सेवन कीए तिस जन्मादि फलते उलटा अविनाशी सुखरूप मोक्षफल पाइए है ! सो इहां भी भ्रम नांही है । जातें सम्यग्ज्ञान चारित्रके सेवनहारे थोरे हैं। अर उनकै तत्काल ही अज्ञान-असंयमजनित आकुलता मिटनैतें किछ सुख हो है। बहुरि बहुत सेवन बहुत सुख होता दी है। तातें जैसे कोई औषधिका सेवन कीए रोग घटता भासै तो तहां जानिए इसके सेवन” सर्व रोगका भी नाश होगा। तैसें इहां भी निश्चय करना सम्यग्ज्ञान चारित्रके सेवन सर्व दुःखका नाश होगा। ता” इनिका सेवन करना युक्त है।
आगैं ऐसा फलकों चाहता संता तूं तिस मार्गविर्षे गमन करहु ऐसा कहै हैं
वंशस्थ छंद दयादमत्यागसमाधिसन्ततः
पथि प्रयाहि प्रगुणं प्रयत्नवान् । नयत्यवश्यं वचसामगोचरं
विकल्पदूरं परमं किमप्यसौ ॥१०७॥ अर्थ-स्व-पर जीवकी करुणा सो दया, अर इन्द्रिय मनका वश करना सो दम, अर पर वस्तुनिविर्षे राग छोडना सो त्याग, अर वीतराग दशारूप सुखी होना सो समाधि । इनिकी जो परिपाटी ताका मार्गविषै तूं यत्न सहित होता संता सूधा कपट रहित गमन करि । यहु मार्ग है सो तोकू वचनतें अगोचर अर विकल्पनि” रहित ऐसो कोई परम पद है ताकौं अवश्यमेव प्राप्त करै है।
भावार्थ-जैसे कोई इष्ट नगरका सांचा मार्गविर्षे सूधा चल्या जाय तौ वह तिस नगरकों पहौचै ही पहौचै तैसे जो मोक्षका सांचा मार्ग सम्यग्ज्ञानचारित्रवि गभित दया दम आदि विशेष इनिविर्षे कपट रहित प्रवर्त तौ मोक्षकौं पावै ही पावै। मैं साधन करौं अर सिद्धि न होइ ऐसा भ्रमतें शिथिल मति होहु । इस साधन” सिद्धि अवश्य हो है ।
आगै विवेकपूर्वक परिग्रहका त्यागरूप मार्ग है सो जीवकौं मोक्षपदका प्राप्त करणहारा है ऐसैं दृढ़ करत संता सूत्र कहै
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