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शरीरकी निःसारता अर्थ-तूं या स्त्रीके कलेवरविर्षे कौन कारण प्रीति करै है। यह स्त्रीका कलेवर कल्याणके भस्म करनेक अग्निज्वालाका समूह है । अर तुं कहा प्रत्यक्ष न देखै है, ए स्त्रीका शरीर नरककी आपदाका उपड्या द्वार है । अर तूं तो स्त्रीके शरीरसँ बारम्बार अनुराग करि उपकार करै है अर वह सदा विघ्नकारी ही है। तातै तू तरुणीके तनतें प्रीति तजि । या अज्ञानी जन दुर्लभ मानै हैं, अर यह कछू वस्तु ही नाहीं।
भावार्थ-स्त्री ही संसारका मूल कारण है। जाकरि पुत्र पौत्रादि संतानकी प्रवृत्ति होय है । अर नानारूप आरम्भ परिप्रहादि चिन्तारूप क्लेश तिनिकी बड़ावनहारी है। जे निवृत्ति वधूटिकाके वर भए ते इनि स्त्रीनिके त्यागहीत भए । अर इन ही के संबन्धत ए प्राणी चतुर्गतिविर्षे भ्रमै है । ऐसा जानि संसर्ग तजना ।
आगै तहाँ स्त्रीविर्षे प्रीति छोड़ि सर्व प्रकार असार जु है मनुष्यपणों ताकौं तू उत्कृष्ट धर्म उपजावनेकरि सफल करहु ऐसी शिक्षा देत सन्ता सूत्र कहे हैं
शार्दूलछन्द व्यापत्पर्वमयं विरामविरसं मूलेऽप्यभोग्योचितं विश्वकाक्षतपातकुष्टकुथिताधुग्रामयैश्छिद्रितम् । मानुष्यं घुणमक्षितेक्षुसदृशं नामैकरम्यं पुनः निस्सारं परलोकवीजमचिरात् कृत्वेह सारीकुरु ॥८१।। अर्थ-यह मनुष्यपणों है सो घुणनिकरि खाया काणां साँठा ताकै समान है । कैसा है ? आपदारूपी गांठनिस्यों तन्मय है । वहुरि अन्तविषै विरसि है । बहुरि मूलविषै भो भोगवनें योग्य नाहीं है । बहुरि सर्वाङ्गपर्ने क्षुधा गूमड़ा कोढ़ कुथितादि भयानक रोग तिनिकरि छिद्रसहित भया है। बहुरि एक नाम मात्र ही रमणीक है और सर्व प्रकार असार हैं । इहाँ याको तूं शीघ्र धर्म साधन” परलोकका बीज करिकै सार सफल करहु ।
भावार्थ-जैसे कांणा सांठाके बीचि-बीचि तौ गांठि पाईये हे, तहां रस नाहीं । बहुरि अन्तविर्षे बांड है, तहां रसका स्वाद नाहीं । बहुरि आदिवि जड़ है यहां रस आवता नाहीं। बहुरि बीचमें वा सर्वत्र घुणनि करि छिद्रित भया, तहाँ भी रस रह्या नाहीं । ऐसे वह काणां सांठा नाममात्र ही तो भला है। बहुरि सर्व प्रकार असार है, भोगयोग्य नाहीं। बहुरि जो उस सांठेको आगामी बीज करै तौ ताकरि बहुत मीठे सांठ
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